देश रोज़ाना: बिहार सरकार ने इसी दो अक्टूबर को जातिगत गणना के आंकड़े जारी किए थे। इसके एक दिन बाद ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में सर्वदलीय बैठक हुई। बैठक में आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस और तीनों लेफ्ट पार्टियों के साथ ओवैसी की एआईएमआईएम ने सर्वे के आधार पर आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग की। बीते सात नवंबर को मौजूदा 50 फीसदी आरक्षण बढ़ाते हुए नीतीश सरकार ने इसे 75 प्रतिशत करने का प्रस्ताव रखा। देखा जाए तो जातिगत गणना के रिपोर्ट और आरक्षण के दायरे में गहरा संबंध है। बिहार देश का पहला राज्य है जहां जातिगत गणना हुई है। मौजूदा समय में गणना के आंकड़े बताते हैं कि यहां अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 और अन्य पिछड़ा वर्ग 27.12 फीसदी है, जबकि अनुसूचित जाति 19.65 और अनुसूचित जनजाति 1.68 फीसदी है। 13 करोड़ की जनसंख्या वाले बिहार में जाति विन्यास आरक्षण की नई बयार को बहाने की ओर उत्सुक है।
नीतीश सरकार ने जो प्रस्ताव रखा है उसमें अन्य पिछड़ा व अति पिछड़ा वर्ग को 43 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। इसमें पिछड़ा वर्ग की महिलाओं को दिया जाने वाला तीन फीसदी आरक्षण भी समायोजित है। जबकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए क्रमश: 16 से 20 और एक से दो फीसदी बढ़ाने की बात देखी जा सकती है जिसका कुल जोड़ 65 फीसदी होता है। इसके बाद 10 प्रतिशत आरक्षण पहले से ही आर्थिक आधार पर साल 2019 के चल रहा है, जिसे केंद्र की मोदी सरकार ने कानूनी रूप दिया था। ऐसे में कुल मिलाकर 75 फीसदी आरक्षण होता है और शेष 25 फीसदी अन्य पर लागू होता है। हालांकि रिपोर्ट में साफ है कि सामान्य वर्ग में भी करीब एक-चौथाई परिवार गरीब ही है। जबकि पूरे बिहार में 34 फीसदी से अधिक परिवार गरीबी का दंश झेल रहे हैं जिनकी आमदनी प्रतिमाह छह हजार या उससे कम है।
गौरतलब है कि अनुच्छेद 16 के उपबंध 4 के अंतर्गत पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसद आरक्षण का प्रावधान है जो मंडल आयोग की सिफारिश पर आधारित है। इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के वाद 1992 में उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एमएच कानिया की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय खण्डपीठ ने कार्यपालिका आदेश द्वारा अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण को वैध ठहराया था, पर आर्थिक आधार पर आरक्षण को अवैध भी करार दिया था। अनुच्छेद 16(4) सामाजिक पिछड़ेपन को बल देता है न कि आर्थिक पिछड़ेपन को। बावजूद इसके 124वां संविधान संशोधन करके आर्थिक पक्ष को भी उल्लेखित किया जाना सरकार ने जरूरी समझा और अब यह सीमा साल 2019 से 50 प्रतिशत से बढ़कर 60 फीसद हो गई है। आर्थिक आधार पर आरक्षण खारिज करने वाली शीर्ष अदालत ने भी इसे क्लीन चिट वर्षों पहले ही दे दिया है। मौजूदा समय में आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश यहां तक की बिहार आदि में भी आरक्षण 60 फीसद ही है, जबकि तमिलनाडु में 69 और महाराष्ट्र में 68 फीसद समेत पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इससे अधिक आरक्षण है।
सवाल यह है कि क्या बिहार सरकार अपने इस प्रस्ताव को लागू कर संविधान की विवेचना और व्यवस्था को कायम रखने में भी कानूनी रूप से सक्षम होगी? मूल संविधान में आरक्षण को लेकर बहुत कुछ प्रतिबिंबित नहीं रहा है। बावजूद इसके जब भी ऐसे मामले प्रकाश में आए तो संविधान के संरक्षक शीर्ष अदालत ने मामले को दूध का दूध और पानी का पानी किया है। विदित हो की जब आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं था तब कुछ राज्यों ने इसे लागू करने का प्रयास किया तो अदालत से निराशा ही हाथ मिली थी। अप्रैल 2016 में छह लाख सालाना आय वालों को 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान गुजरात में लागू किया गया लेकिन अदालत ने खारिज कर दिया। सितंबर 2015 में गरीब सवर्णों के लिए 14 फीसदी आरक्षण का प्रावधान राजस्थान सरकार ने भी लाने का प्रयास किया जिसे अदालत ने खारिज किया। (यह लेखक के निजी विचार हैं।)
– डॉ. सुशील कुमार सिंह