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मौत का भय भी तुच्छ हो जाता है मुक्ति की भावना के आगे

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संजय मग्गू
गुलाम रहना कोई नहीं चाहता है। चाहे वह मानसिक गुलामी हो, राजनीतिक या धार्मिक हो। जब इससे मुक्ति की भावना प्रबल होती है, तो फिर मौत का भय भी तुच्छ हो जाता है। ईरानी यूनिवर्सिटी की शोध शाखा में अपने कपड़े उतारने वाली छात्रा ने जिस तरह कैंपस में चहलकदमी की, उसके चेहरे से वीडियो में कहीं भी मौत का भय झलकता नहीं दिखाई दे रहा था। ऐसे लोग यह जानते हैं कि उनके इस कृत्य की सजा या तो आजीवन कारावास है या फिर मौत। इसके बावजूद लोग बगावत करते हैं। शासन सत्ता के खिलाफ, धार्मिक बंधनों के खिलाफ, सामाजिक परंपराओं के खिलाफ। जब मन में जुनून उठता है, तो सिर्फ मकसद ही याद रहता है, मौत का भय नहीं। ईरानी यूनिवर्सिटी की उस छात्रा का क्या होगा या हुआ, कोई खबर नहीं है। हो सकता है कि उसे मानसिक रोगी बताकर अस्पताल में डाल दिया जाए और कुछ समय बाद उसका वही अंजाम हो जो सन 2022 में महसा अमीनी का हुआ था। जो उन पांच सौ से अधिक लोगों का हुआ था जो हिजाब का ईरान में विरोध कर रहे थे और अपनी जान गंवा बैठे। कुछ लोगों का तो दावा है कि वह छात्रा अब तक मार दी गई होगी। बलात्कार भी किया गया होगा। मुक्ति की कामना जब मनुष्य में प्रबल हो उठती है, तो उसे कुछ भी नहीं सूझता है मुक्ति के सिवा। आप खुदीराम बोस के बारे में कल्पना करके देखिए। सिर्फ 18 साल की उम्र में फांसी चढ़ गया और वह भी हंसते-हंसते। ब्रिटिश शासन के आगे न रोया, न गिड़गिड़ाया। उसके अंदर एक जुनून था कि देश को आजाद कराना है। 18 साल की उम्र ही क्या होती है? लेकिन नहीं, उसने साबित कर दिया कि गुलामी में जिंदा रहने से बेहतर है मर जाना और वह मर गया। हिंदुस्तान के लोगों को सिखा गया कि मरा कैसे जाता है? उसने मरकर लोगों को आजादी के लिए मरना सिखाया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, चाफेकर बंधु जैसे आजादी के लिए शहादत देने वालों की एक लंबी शृंखला है। दुनिया में जितने भी देश गुलामी से मुक्त हुए हैं क्या उन्हें ऐसे ही आजादी मिल गई थी? नहीं, गुलामी से मुक्ति के लिए कीमत चुकानी पड़ी है। वह कीमत फांसी भी हो सकती है, गोली भी हो सकती है और आजीवन कारावास भी। कहते हैं कि अभागा वह नहीं है जो गुलाम है। अभागा वह है जो गुलामी में संतुष्ट है और गुलामी को जायज ठहराने का प्रयास करता है। गुलाम जिस क्षण आजादी की कामना करता है, आधा स्वतंत्र तो वह उसी समय हो जाता है। आधी स्वतंत्रता के लिए उसे प्रयास करना होता है। लड़ना होता है, अपने भीतर खुदीराम बोस की तरह जुनून पैदा करना होता है। तभी आजादी मिलती है। आजादी कीमत मांगती है और वह कीमत चुकाए बिना आजादी का आनंद नहीं लिया जा सकता है। ईरानी यूनिवर्सिटी की छात्रा का जो भी परिणाम हुआ हो या होगा, लेकिन उसने ईरानी महिलाओं को यह बता दिया है कि हिजाब से मुक्ति चाहिए, तो अपनी जान दांव पर लगानी होगी। उन्हें सड़कों पर आना होगा, इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

संजय मग्गू

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