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संकटकाल में सबसे बड़ा अवलंबन होता है परिवार

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संजय मग्गू
समाज की सबसे छोटी इकाई है परिवार। सबसे छोटी इकाई होने के बाद भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। यही समाज की आधारशिला भी होती है। यही वजह है कि दुनिया के सभी देशों में सबसे ज्यादा महत्व परिवार को ही प्रदान किया जाता है। भारत में अब भी दो तरह के परिवार पाए जाते हैं। बहुत कम बचे संयुक्त परिवार और बहुतायत में बने एकल परिवार जिन्हें माइक्रो फैमिली भी कहा जाता है। यूरोप और अमेरिका की जीवन शैली में परिवार में कम समय बिताने का चलन काफी दिनों से था। काम-काज या नौकरी से फुरसत मिलने के बाद लोग पार्टियों में, घूमने-फिरने को प्राथमिकता देते हैं यूरोप और अमेरिका के लोग। भारत में ज्यादातर लोग कामकाज से फुरसत मिलने पर घर-परिवार की ओर भागते हैं। लेकिन अब पश्चिमी देशों में भी परिवार के साथ समय बिताने का चलन जोर पकड़ रहा है। अमेरिका में तो लोग परिवार में बिताने वाले औसत समय से दो घंटे ज्यादा बिताने लगे हैं। कुछ लोग इसका कारण कोरोना महामारी को मानते हैं। कोरोना काल के दौरान जब सब तरफ मौत का भयावह साया मंडरा रहा था, तो वह परिवार ही था जिसने संबल प्रदान किया था। परिवार ही वह संस्था थी जिसने यह आश्वस्ति प्रदान की थी कि कुछ भी हो, अच्छा या बुरा, वह उसके साथ है। धीरे-धीरे कोरोना महामारी की भयावहता घटी, लोगों ने बाहर निकलना शुरू किया, लेकिन इस दौरान जो अनुभव हुए उसने परिवार के साथ ज्यादा समय बिताने को मजबूर कर दिया। भारत में भी ऐसा ही हुआ। दरअसल, हम जो खुशियां बाहर तलाशते हैं, जिस आनंद की खोज में परिवार से बाहर दर-दर भटकते हैं, वह खुशी परिवार में ही मिल पाती है। भारतीय परिवारों को यह एहसास सदियों से है। हां, कथित रूप से आधुनिक होने का दावा करने वाले लोगों को यह लग सकता है कि परिवार से बाहर मिली खुशियां और अनुभव ज्यादा अच्छे हैं, लेकिन बहुतायत में लोगों का अनुभव परिवार के पक्ष में ही है। दुनिया के किसी भी समाज में जब दो परिवार आपस में जुड़ते हैं, तो रिश्तेदारी होती है। जब कई सारे परिवार एक ही जगह रहने लगते हैं, तो वह गांव या मोहल्ला बनाता है। जब उनमें क्रियात्मक संबंध कायम होते हैं, तो वह परिवारों का समूह समाज बन जाता है। इस समाज में भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों, विचारों और धार्मिक प्रथाओं, परंपराओं के लोग एक साथ रहते हैं। मतवैभिन्य या धार्मिक भिन्नता इनके क्रियात्मक संबंध में कहीं आड़े नहीं आती है। भारत में ही हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई और पारसी साथ-साथ रहते हैं। हालांकि, इधर कुछ सालों से समाज में तब्दीली आई है और समाज में अविश्वास पैदा हुआ है। लेकिन यह हमारे समाज का मूल स्वभाव नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम को मानने वाला समाज अंतत: अपने मूल स्वरूप में ही परिलक्षित होता है और भविष्य में होगा भी। जरूरत इस बात की है हम अपने परिवार से प्यार करें, परिवार के सदस्यों से प्यार करें, तो हमें समाज और देश से प्यार करना खुद बखुद आ जाएगा। इसमें कोई शक नहीं है।

संजय मग्गू

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