संजय मग्गू
ब्रजभाषा की एक बहुत पुरानी कहावत है कि मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन। इन दिनों दिल्ली चुनाव के दौरान राजनीतिक दल मतदाताओं को रिझाने के लिए जो वायदे कर रहे हैं, वह एक तरह से मुफ्त का चंदन घिसने के समान ही है। कोई महिलाओं को 21 सौ रुपये देने की बात कह रहा है, तो कोई ढाई हजार रुपये देने का वायदा करके महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। होली-दीवाली पर एक-एक मुफ्त गैस सिलेंडर देने के साथ-साथ पांच सौ रुपये में गैस सिलेंडर देने का लुभावना नारा भी दिल्ली की हवा में तैर रहा है। इसी तरह के न जाने कितनी गारंटियां भी दी जा रही हैं। इस मामले में न भाजपा कम है, न आप और कांग्रेस। सबके अपने-अपने वायदे हैं और वायदों को पूरा करने के दावे। लेकिन सवाल यह है कि इन वायदों को पूरा कहां से किया जाएगा। इन वायदों को पूरा करने का जरिया क्या है? यह कोई भी दल बताने को तैयार नहीं है। जिन राज्यों में राजनीतिक दलों ने मुफ्त की रेवड़ियां बांटकर सत्ता हथियाई है, उन राज्यों की अर्थव्यवस्था कोई अच्छी नहीं है। राज्य की जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा इन वायदों को पूरा करने में खर्च हो रहा है। चुनावी वायदे इन सत्ताधारियों के गले में ‘मरे सांप’ की तरह लटके हुए हैं। यदि पूरा न करें, तो अगली बार किस मुंह से जनता से वोट मांगेंगे और वायदे कैसे करेंगे। यदि चुनावी वायदा पूरा करते हैं, तो अर्थव्यवस्था की हालत कोमा में पहुंचे मरीज जैसी होने की आशंका है। ऐसी स्थिति में कर्ज लेने के सिवा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। इंफोमेरिक्स रेटिंग्स की एक बताती है कि मध्य प्रदेश में लाडली बहना योजना के लिए ही हर साल 24 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था करनी होगी। कर्नाटक सरकार को अपनी पांच गारंटी पूरी करने के लिए 60 हजार करोड़ रुपये ज्यादा चाहिए। उसके पास कर्ज लेने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचा है। सबसे ज्यादा कर्ज में तो पंजाब डूबा हुआ है। अपनी सरकार की चमक-दमक दिखाने और चुनावी वायदों को पूरा करने के लिए भगवंत सिंह मान की आप सरकार ने जीडीपी से 44 प्रतिशत ज्यादा कर्ज ले रखा है। हिमाचल, अरुणाचल, नगालैंड, मेघालय, पश्चिमी बंगाल, राजस्थान जैसे तमाम राज्यों ने अपनी जीडीपी से कहीं ज्यादा कर्ज लेकर मुफ्त की रेवड़ियां बांटी हैं और आगे भी बांटना उनकी मजबूरी है। हरियाणा, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र में भी कमोबेश यही स्थिति है। दिल्ली में सरकार चाहे जिसकी बने, लेकिन मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के लिए घाटे का बजट और कर्ज दिल्ली की जनता के मााथे पर ही टिकाया जाएगा। एक कहावहत है कि भवानी अपने घर से आंख थोड़ी न देंगी, किसी की आंख निकालेंगी, तो किसी को दे देंगी। दिल्ली में भी यही होगा। पहले से चल रही कोई योजना बंद की जाएगी और वायदे वाली योजना शुरू की जाएगी। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मद में खर्च होने वाली राशि को भी कम किया जा सकता है।
‘मरे सांप’ की तरह गले में न लटक जाए मुफ्त के चुनावी वायदे
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