संस्कृत का एक श्लोक है-पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम। कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम। कहने का मतलब है कि पुस्तक में लिखी गई विद्या और दूसरे के हाथ में गया धन, समय आने पर न वह विद्या काम आती है, न वह धन। इसलिए अगरर् ज्ञान चाहिए तो पुस्तक पढ़नी पड़ेगी। बिना पढ़े कोई विद्वान नहीं हो सकता है। आज ज्यादातर विद्यार्थी मजबूरी में सिर्फ अपना पाठ्यक्रम ही पढ़ते हैं। अगर परीक्षा पास न करी होती, तो वे उसकी ओर देखते भी नहीं। सिलेबस से बाहर देखने-पढ़ने के लिए सोशल मीडिया है न। इस सोशल मीडिया से ही उनकी ज्ञान पिपाशा शांत हो जाती है। लेकिन वे नहीं जानते हैं कि ह्वाट्सऐप, इंस्टाग्राम, फेसबुक और अन्य माध्यमों पर उपलब्ध बातों की कोई प्रामाणिकता नहीं है। वहां पर जो बातें कही गई हैं, वे बायस्ड हो सकती हैं, पूर्वाग्रह से लिखी गई हो सकती हैं, गलत हो सकती हैं। लेकिन पुस्तक इस मामले में धोखा नहीं देती है।
इस मामले में सिर्फ दस प्रतिशत पुस्तकें पूर्वाग्रह के आधार पर लिखी गई हो सकती हैं। लेकिन विशद ज्ञान हासिल करना है, तो सिर्फ कुछ पुस्तकों को पढ़ने से काम नहीं चलेगा। ढेर सारी पुस्तकें पढ़नी पड़ेंगी, तब जाकर किसी मुद्दे पर आपको पूरी सच्चाई का ज्ञान होगा। हो सकता है कि किसी किताब में जो बातें लिखी गई हों, वह एक पक्षीय हो, लेखक का सामर्थ्य उतना ही लिखने का रहा हो। जब तक पुस्तक पर पुस्तक नहीं पढ़ी जाएगी, तब तक एक निष्पक्ष और निष्कपट राय किसी भी मामले में कायम नहीं की जा सकती है। यही वजह है कि साहित्य यानी पुस्तकों को समाज का दर्पण कहा गया है। साहित्य का समाज पर बहुत गहरा असर होता है। आज जब बच्चों, युवाओं, महिलाओं और बुजुर्गों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है, ऐसे में समाज में विचार शून्यता पैदा होती जा रही है।
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इस विचार शून्यता का परिणाम क्या होगा? हम भेड़ की तरह हो जाएंगे। भीड़ में तब्दील हो जाएंगे। हमारा वैचारिक स्थिति नगण्य हो जाएगी। हमारी स्थिति मानसिक गुलामों जैसी हो जाएगी। यही वजह है कि पूरी दुनिया में शासक अपने हितों को साधने के लिए नहीं चाहते हैं कि उनके देश-प्रदेश की जनता पुस्तकों, पुस्तकालयों की ओर लौटे। वह किसी न किसी बहाने हमारी पढ़ने की प्रवृत्ति को कुंद कर देना चाहते हैं। अगर साहित्य का समाज पर गहरा प्रभाव न पड़ता, तो अंग्रेज इतने बेवकूफ नहीं थे कि वे साहित्य पर प्रतिबंध लगाते। उन्होंने हर उस साहित्य पर प्रतिबंध लगाया जिसमें उनके खिलाफ कुछ लिखा गया था। वह हर उस विचार को दबा देना चाहते थे, जो उनके साम्राज्य के खिलाफ था। वे हर उस आदमी को या तो अपने में मिला लेना चाहते थे या फिर मिटा देना चाहते थे जो उनके खिलाफ तनकर खड़ा होने का साहस करता था। क्रांति के गीत गाने वाले न जाने कितने लोगों को जेल की सलाखों के पीछे भेजा गया। लेकिन विचार मरते नहीं है, यह अंग्रेज भी भूल गए थे।
-संजय मग्गू
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