अपने महाकाव्य रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है कि प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा। आयसु मांगि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा। जब राम अपने गुरु को सुबह उठकर माता-पिता के बाद प्रणाम करते हैं, चरण स्पर्श करते हैं, तो फिर सामान्य लोगों को अपने गुरु का आदर करने में क्यों संकोच होता है। वे तो भगवान थे, विष्णु अवतार थे, मायापति थे। उनके गुरु वशिष्ठ तो एक सामान्य मानव ही थे। एक मानव को भगवान सुबह उठकर प्रणाम करे, चरण स्पर्श करे। है न अचंभे की बात। नहीं कोई अचंभे की बात नहीं है। राम भले ही विष्णु अवतार थे, भगवान थे, लेकिन उस समय उन्होंने मानव रूप धारण कर रखा था।
गुरु का सम्मान करना उस समय की लोकरीति थी। गुरु का अपमान या असम्मान प्रकट करने वाला अधम माना जाता था। राम भला फिर ऐसा कैसे कर सकते थे। वैसे भी हमारे देश में तो गुरु का दर्जा भगवान से भी ऊपर माना गया है। लेकिन आज हमारे उसी देश में गुरुजनों यानी शिक्षकों की जो दशा है, वह किसी से छिपी नहीं है। यह बात बिल्कुल सही है कि पतन दोनों तरफ हुआ है। शिक्षक भी शिक्षक जैसे नहीं रहे और विद्यार्थी भी आज्ञाकारी विद्यार्थी नहीं रहे। स्कूलों में होने वाले पैरेंट टीचर्स मीटिंग के दौरान एक ही तरह का दृश्य आमतौर पर देखने को मिलता है। हर मां-बाप अध्यापक से यही पूछता है, मेरा बच्चा स्कूल में कैसा है? वह इतना पिछड़ता क्यों जा रहा है। इतनी महंगी फीस देते हैं, सारे खर्चे उठाते हैं, फिर भी यह दशा है। गोया, महंगी फीस देकर माता-पिता ने शिक्षक पर यह जिम्मेदारी डाल दी कि उनके बच्चे के क्लास में अव्वल आने की जिम्मेदारी टीचर की है।
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अध्यापक से बात करने का जो लहजा होता है, वह कतई आदर वाला नहीं होता है। मानसिकता बन गई है, इतनी भारी भरकम फीस देते हैं, अब उनका मान सम्मान भी करूं। फीस दी है, कोई मुफ्त में तो पढ़ाते नहीं हैं। कुछ दशक पहले अध्यापक अमीर हो या गरीब, अंग्रेजी स्कूल का हो या टाट पट्टी वाले स्कूल का, समाज में उसका बड़ा आदर था। लोग राह चलते यदि जान जाएं कि अध्यापक है, तो उसका सम्मान करते थे, उसको प्राथमिकता देते थे। बाजार में या आते-जाते मां-बाप की अध्यापकों से मुलाकात हो ही जाती थी।
माता-पिता या परिजन अध्यापक के सामने इस तरह श्रद्धावनत हो जाते थे, मानो वे ही उनके शिष्य हों। तब लोकलज्जा के चलते ही सही अध्यापक अपने आचरण से, कर्म से अध्यापक बना रहता था। वह अपने शिष्यों और समाज के लिए एक आदर्श बनकर जीता था। समाज में नैतिकता थी। छात्र-छात्राएं भी गलत करने से डरते थे। लेकिन अफसोस की बात यह है कि सरकार और समाज ने शिक्षक को आज वेतनभोगी बना दिया है। उसे भी अपने वेतन से मतलब है। शिष्यों को भी भारी भरकम फीस देकर अपना नौकर समझ लिया। गुरु-शिष्य के बदतर होते संबंधों का शायद यही कारण है।
-संजय मग्गू
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