संजय मग्गू
हमारे पूर्वज प्रकृति में पाई जाने वाली वनस्पतियों, जीवों और मनुष्य के बीच के संबंधों को अच्छी तरह से समझते थे। यही वजह है कि वह प्रकृति को अपना मित्र मानकर उसके साथ सहयोगात्मक रवैया अख्तियार करते थे। वह विज्ञान और अर्थशास्त्र की बड़ी-बड़ी परिभाषाओं और सिद्धांतों को नहीं समझते थे, लेकिन इतनी सी बात उनकी समझ में जरूर आ गई थी कि यदि मनुष्य इस दुनिया से विलुप्त हो गया, तो प्रकृति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन यदि प्रकृति से वनस्पतियां और जीव-जंतु विलुप्त हो गए, तो पूरी पृथ्वी विनाश के कगार पर होगी। यही वजह है कि उन्होंने अपनी संततियों में पेड़, पौधों, जीव-जंतुओं, नदियों, तालाबों और जल के संरक्षण की प्रवृत्ति पैदा की। उनकी पूजा-आराधना के माध्यम से उनमें प्रकृति के प्रति लगाव पैदा किया। तब विज्ञान भले ही इतना उन्नत नहीं था, लेकिन वह यह जानते थे कि सूर्य रोशनी की वजह से ही प्रकृति हरी भरी रहती है। हां, सूर्य का प्रकाश कैसे प्रकाश संश्लेषण क्रिया करता है, यह भले ही वह नहीं जान पाए थे। वह यह भी नहीं जान पाए थे कि सूर्य एक तारा है। लेकिन उन्होंने उसे पृथ्वी का भगवान मानकर पूजा जरूर की और उसके प्रति आभार व्यक्त किया। अभी दो दिन पहले मनाया गया महापर्व छठ उसी का प्रतीक है। प्रकृति ही उनके जीवन का आधार है। यदि प्रकृति नहीं रही, तो मानव जीवन भी संभव नहीं होगा। यह भी वे अच्छी तरह से जानते थे।
लेकिन जैसे-जैसे प्रकृति के रहस्य उजागर होते गए। मनुष्य प्रकृति के क्रियाकलापों को समझता गया। वैसे-वैसे प्रकृति में उसका हस्तक्षेप और दोहन बढ़ता गया। नतीजा आज सबके सामने है। पूरी पृथ्वी विनाश के कगार पर आकर खड़ी हो गई है। विकास के नाम पर धुआं उगलती मशीनों, वाहनों, कल-कारखानों ने हमें एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि इससे निजात पाने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है। प्रकृति के विनाश की दर को यदि जल्दी ही कम नहीं किया गया, तो पूरी पृथ्वी पर वनस्पतियों, जलचर और उभयचर जीवों के विलुप्त होने का खतरा और गहराएगा। पूरी दुनिया में जितना भी वन क्षेत्र हैं, उनसे एक तिहाई वनस्पतियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। यदि इन्हें बचाने का प्रयास नहीं किया गया, तो निकट भविष्य में इसके भयानक परिणाम हो सकते हैं। सन 2021 में वाशिंगटन स्थित विश्व संसाधन संस्थान की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि 19079 वनस्पतियां विलुप्त होने की कगार पर आ चुकी हैं। पिछले दो सौ साल में न जाने कितने जीव-जंतु और वनस्पतियां विलुप्त हो चुकी हैं। जीव-जंतुओं का जीवन वनस्पतियों पर ही निर्भर है। यदि वनस्पतियों को विलुप्त होने से नहीं बचाया जा सका, तो जीवों को विलोपन से हरगिज नहीं बचाया जा सकेगा।
पिछले महीने 21 अक्टूबर से एक नवंबर तक कॉप-16 का आयोजन किया गया। इसमें लगभग दो सौ देशों के राष्ट्राध्यक्षों, मंत्रियों और प्रकृति विज्ञानियों ने भाग लिया, लेकिन इस आयोजन का कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कोई ठोस कार्य योजना भी सामने नहीं आई। अब तो अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप जनवरी में राष्ट्रपति का कार्यभार संभालने वाले हैं। ऐसी स्थिति में पर्यावरण संरक्षण के मामले में उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। अपने पहले ही कार्यकाल में उन्हें पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई कार्यक्रम रोक दिए थे। इस बार तो उनका नारा ही था, ड्रिल…ड्रिल…ड्रिल। यानी गैस, तेल और जीवाश्म ईंधन का भरपूर उपयोग। उन्होंने कई बार कहा है कि वे आर्कटिक इलाके में तेल की खोज के लिए ड्रिलिंग कराने के इच्छुक हैं। वह इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को अच्छा नहीं समझते हैं। यही वजह है कि वह राष्ट्रपति जो बाइडेन के इलेक्ट्रिक वाहन नीति को कार्यभार संभालते ही खारिज कर सकते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
संजय मग्गू