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दंगों के दौरान शर्मसार होती है इंसानियत

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सांप्रदायिक दंगों के दौरान इंसानियत होती है शर्मसार। उस देश का इतिहास इंसान के भीतर छिपे बैठे हैवान की करतूत देखकर किसी कोने में बैठकर सिसकता है। समाज और राष्ट्र की इज्जत को हत्या, लूट और बलात्कार जैसी घटनाएं तार-तार कर देती हैं। सांप्रदायिक दंगे इंसान के विवेक को हर लेते हैं। वह पड़ोसी जो कल तक भाई था, दोस्त था, हमदम था, जिसकी थाली से रोटी खाते समय कोई दुराग्रह नहीं था। जरूरत पड़ने पर जो पड़ोसी किसी सच्चे हमदर्द और मित्र की तरह संकट की घड़ी में चौबीस घंटे खड़े रहने को तैयार था, लेकिन धार्मिक कट्टरता की एक मामूली सी चिंगारी इन मानवीय संवेदनाओं को जलाकर खाक कर देती है। जो हिंदू-मुसलमान कल तक एक अच्छे पड़ोसी थे, आज एक दूसरे के कट्टर शत्रु नजर आते हैं।

हरियाणा के नूंह, गुरुग्राम, पलवल और फरीदाबाद जैसे शहरों में 31 जुलाई और उसके बाद के दिनों यही हुआ था। इन सांप्रदायिक दंगों ने भाईचारे का सीना चाक करके उसमें मिर्च भर दी। मानवता के दामन पर इतने बड़े-बड़े और घिनौने दाग लगाए जा रहे हैं कि लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। 

वैसे, अगर हम इतिहास पर गंभीर और गहरी नजर डालें, तो पाते हैं कि भारत में सांप्रदायिक दंगों का इतिहास काफी पुराना है। हिंदू-मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक हिंसा की घटना आज से दो सौ चौदह साल पहले सन 1809 में भी घट चुकी है। इसे आधुनिक भारत का संभवत: पहला हिंदू-मुस्लिम दंगा भी कहा जा सकता है। इस दंगे की आधारशिला बनी थी वाराणसी जिले में स्थित ईदगाह और हनुमान टीले के बीच की विवादित जमीन। इस विवादित जमीन को कोई भी पक्ष छोड़ने को तैयार नहीं था। तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्ता-धर्ता भी नहीं चाहते थे कि यह मामला सुलझे। वे बराबर इस प्रयास में थे कि किस तरह जमीन विवाद रूपी चिंगारी को हवा देकर विशाल दावानल का रूप दिया जाए। और उन्हें अपने इस प्रयास में सफलता भी मिली, क्योंकि भारतीय इतिहास में इस घटना को प्रथम हिंदू-मुसलमान दंगे के रूप में दर्ज जो होना था।

हिंदुओं और मुसलमानों ने एक दूसरे के खून से 1809 में पहली होली खेली। दोनों पक्ष के कई लोग मारे गए, काफी संख्या में लोग घायल हुए और दंगा शांत कराने के नाम पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदू-मुसलमानों का भरपूर दमन किया। इस घटना से हिंदू और मुसलमानों ने शायद सबक सीखा और सन 1857 के गदर में एक दूसरे का भरपूर साथ दिया। वे कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़े। उनका यह सांप्रदायिक सद्भाव अंग्रेजों को खटकने लगा। इस गदर के बाद वे बराबर इस प्रयास में रहे कि किसी तरह हिंदू-मुसलमानों की एकता को तार-तार किया जाए।

उन्हें सफलता मिली सन 1905 में। लार्ड कर्जन ने हिंदू-मुस्लिम एकता को विखंडित करने के लिए सबसे पहले देश के वृहद प्रदेश बंगाल के विभाजन की घोषणा की। 16 अक्टूबर 1905 को लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की घोषणा करते हुए कहा, बंगाल में हिंदुओं को अल्पसंख्यक और मुसलमानों को बहुसंख्यक बनाने के लिए प्रदेश विभाजन जरूरी था। मालूम हो कि पूर्वी बंगाल में मुसलमानों की आबादी हिंदुओं की अपेक्षा ज्यादा थी। घोषणा के एक साल पूर्व से ही पूर्वी बंगाल का गर्वनर बैम्फाइल्ड पूरे बंगाल में यह कहता घूम रहा था कि उसकी दो बीवियां हैं। एक हिंदू और दूसरी मुसलमान। मैं दूसरी को सबसे अधिक प्यार करता हूं। यह स्पष्ट रूप से हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने की घृणित चाल थी।

लार्ड रोनाल्डशे के मुताबिक, इस विभाजन से बंगाली राष्ट्रीयता की बढ़ती हुई शक्ति को चकनाचूर करने का प्रयास किया गया। प्रसिद्ध इतिहासकार एसी मजूमदार के मुताबिक, लार्ड कर्जन के भड़काने पर पूर्वी बंगाल में भीषण दंगे हुए। इस दंगे की साजिश रची ढाका के नवाब सलीमउल्ला खान ने। उसने ढाका के कारागार में सजायाफ्ता मुजरिमों की सजा माफ करते हुए कहा कि वे जाकर ढाका में बदअमनी फैलाएं। हिंदू-मुसलमानों में मतभेद पैदा करें। उनको आपस में लड़वाएं। कारागार से रिहा किए गए एक मुसलमान अपराधी ने ढाका की भीड़ भरी सड़कों पर मुसलमानों को संबोधित करते हुए नवाब की तरफ से यह सूचना पढ़ी कि ब्रिटिश सरकार और ढाका के नवाब बहादुर सलीम उल्ला की आज्ञानुसार यदि कोई मुसलमान हिंदुओं को लूटने, उनकी हत्या करने, उनकी महिलाओं से बलात्कार करने का दोषी पाया जाता है, तो उसे दंडित नहीं किया जाएगा। नतीजा यह हुआ कि इस भीड़ ने काली मंदिर पर हमला करके मूर्तियों को तहस-नहस करने के साथ-साथ आसपास के हिंदू व्यापारियों को लूट लिया। हिंदू स्त्रियों का अपहरण कर उनके साथ बलात्कार किया गया और हिंदू व्यापारी मुसलमानों पर जवाबी हमला करने में भी लापरवाही बरतते रहे। इस मामले में ढाका नवाब सलीम उल्ला खां का स्वार्थ यह था कि उसे अंग्रेजों ने एक लाख पौंड का ब्याज रहित कर्ज दे रखा था। भविष्य में भी एक मोटी रकन देने का आश्वासन अंग्रेजों ने दिया था।

इससे साथ ही साथ वह अंग्रेजों से मिलकर अपनी रियासत बचाए रहना चाहता था। इस दंगे ने हिंदू-मुसलमानों के बीच एक ऐसी दरार डाल दी, जो कालांतर में मुस्लीम लीग, अकाली दल, हिंदू महासभा के गठन का आधार बनी। ढाका दंगे के एक साल बाद 1906 में ढाका नवाब सलीम उल्ला खां और दूसरे मुस्लिम नेताओं ने मिलकर मुस्लिम लीग का गठन किया और बाद में यही संगठन द्विराष्ट्र के सिद्धांत के प्रचार-प्रसार में सहायक बना। इसके बाद हुआ सन 1931 में कानपुर में दंगा। इस दंगे ने यशस्वी पत्रकार, स्वाधीनता   संग्राम सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी की बलि ले ली। कानपुर में भड़की सांप्रदायिक हिंसा की आग को बुझाने की कोशिश में ही गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गए।

कानपुर में दंगे का कारण बना महात्मा गांधी द्वारा आहूत सविनय अवज्ञा आंदोलन। सन 1931 में महात्मा गांधी के निर्देश पर अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत कानपुर बंद का आह्वान किया था। उन दिनों कानपुर की कॉटन मिलों में हड़ताल के कारण उत्पादन ठप पड़ा था। व्यापारियों के गोदामों में जमा माल ही बेचा जा रहा था। जब सविनय अवज्ञा आंदोलन के चलते काफी दिनों तक दुकानों को बंद करने की नौबत आई, तो व्यापारियों को घाटा होने लगा। मालूम हो कि उन दिनों कानपुर में कपड़े के ज्यादातर व्यापारी मुसलमान थे। मुस्लिम व्यापारी जब ज्यादा घाटा सहने की स्थिति में नहीं रहे, तो उन्होंने दुकानें खोल दीं। इससे कांग्रेसी भड़क उठे। मुस्लिम व्यापारियों से ‘तू-तू, मैं-मैं’ से शुरू हुई बातचीत, बाद में झड़प, मारपीट में तब्दील हुई और फिर सांप्रदायिकता की आग में पूरा कानपुर जल उठा। हजारों दुकानें लूट ली गईं, सैकड़ों दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया। काफी संख्या में हिंदू-मुसलमान मारे गए, सैकड़ों घायल हुए। और इसी सांप्रदायिकता की आग ने ओजस्वी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी को निगल लिया।

बीसवीं सदी में शायद दुनिया का सबसे बड़ा दंगा भारत-पाक विभाजन के दौरान हुआ था। कहा जाता है कि इस दंगे में लगभग दस लाख लोग मारे गए थे, तीस लाख लोग घायल हुए थे। अरबों रुपये की संपत्ति तहस-नहस या लूट ली गई थी। कई सौ सालों से भाई-भाई की तरह रह रहे लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। 15 अगस्त 1947 की सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलसने वालों और उसे अपनी आंख से देखने वालों ने कालांतर में जो संस्मरण, उपन्यास, कहानी आदि लिखे, उससे पता चलता है कि उस दौरान मानवता को हैवानों ने पैरों तले बर्बरतापूर्ण तरीके से रौंदा था। कहा जाता है कि भारत और पाकिस्तान से आने-जाने वाली रेलगाड़ियों, ट्रकों, बसों और दूसरे वाहनों में सिर्फ लाशें ही भरी रहती थीं। लाखों महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार किए गए, उनके स्तन काट लिए गए, उनके निजी अंगों में नोकीले और धारदार हथियार भोंके गए। लाखों लड़कियों का इस पार और उस पार रहने वालों ने अपहरण कर लिया।

यह बर्बर अत्याचार देखकर मानवता भी कराह उठी। खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’, यशपाल का ‘झूठा सच’, सआदत हसन मंटों की कहानी ‘खोल दो’ पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जिन लोगों ने यह त्रासदी भोगी होगी, उनकी पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है। दंगे किसी के लिए भी सुखद नहीं होते हैं। दंगे किसी तरह की सुखानुभूति नहीं कराते, दंगे देते हैं सिर्फ घाव, पीड़ा, अपमान और जलालत। अब भी समय है, अगर दंगों का होना रोका जा सकते, तो यह मानवता की सबसे बड़ी सेवा होगी।

अशोक मिश्र

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