इस दुनिया में बहुत सारे लोग ऐेसे हैं जो बिना मेहनत किए जीवन भर खाते रहते हैं। दूसरों का हक मारकर खाते समय उन्हें किसी प्रकार की ग्लानि भी नहीं महसूस होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने हक का खाते हैं। उन्हें दूसरों की मेहनत की कमाई खाने में कोई रुचि नहीं होती है। प्राचीन काल में एक राजा था। उसे हमेशा लोगों की चिंता रहती थी। वह अपनी प्रजा के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करता रहता था। वह सत्संग का भी लोभी था। कहीं भी कोई संत, महात्मा या बुद्धिमान व्यक्ति मिल जाता, वह अपनी जिज्ञासाओं को शांत करता रहता था।
एक बार की बात है, उसके महल में एक संत आया। जब दोनों खाने बैठे तो राजा के मन में सवाल उठा कि हक की रोटी क्या होती है? उसने संत से पूछा तो संत ने कहा कि इस सवाल का जवाब तो आपके नगर में रहने वाली एक बुजुर्ग महिला दे सकती है। खाना खाने के बाद राजा उस महिला के पास पहुंचे, तो वह रोटी पकाकर खाने जा रही थी। राजा ने जब उसके सामने अपना सवाल रखा, तो उसने कहा कि इस रोटी में से आधी हक की है और आधी बिना हक की।
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राजा ने पूछा कैसे? तो उसने कहा कि जब मैं कल शाम को सूत कात रही थी, तो अंधेरा हो गया था। उसी समय रास्ते से गाना गाने वाले लोग गुजरे। उन्होंने मशाल जला रखी थी। मैंने एक पूनी तो अंधेरा होने से पहले काती थी, लेकिन दूसरी पूनी मैंने उस मशाल की रोशनी में काती। इसलिए इस रोटी में से आधी पर ही मेरा हक है। आधी रोटी पर तो उन गाना गाने वालों का हक है। राजा की जिज्ञासा शांत हो गई। उन्होंने उस बुजुर्ग महिला को स्वर्ण मुद्राएं देने का प्रयास किया, लेकिन उसने यह कहकर इनकार कर दिया कि मैं अपने हक की ही कमाई खाती हूं।
-अशोक मिश्र
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