महर्षि रमण आधुनिक काल के बड़े संत और ऋषि थे। उनका वास्तविक नाम वेंकटरमण अय्यर था। लेकिन वे महर्षि रमण के नाम से ही विख्यात हैं। उनका जन्म 30 दिसंबर 1889 को मद्रास में हुआ था। वह दर्शन में अद्वैतवाद के समर्थक थे। उनका मानना था कि जो व्यक्ति अपने अहम को मिटाकर साधना में लगा रहता है, उसी को परमानंद की प्राप्ति होती है। एक बार की बात है। एक युवक उनके पास आया और बोला कि मुझे कर्मयोग के बारे में जानना है। यह कर्मयोग क्या है और मैं कैसे इसे सीख सकता हूं? यह बताने की कृपा करें।
महर्षि रमण ने कहा कि तुम यहीं बैठे रहो। जो मैं कहता हूं, उसका पालन करना। वह युवक उनके पास ही बैठ गया। काफी देर बाद एक व्यक्ति आया और उसने महर्षि रमण के सामने एक पात्र में कुछ डोसे रख दिए। रमण ने एक डोसा उठाकर युवक के सामने एक पत्तल में रखते हुए कहा कि जब मैं अंगुली से इशारा करूंगा, तब तुम्हें खाना शुरू करना है, लेकिन जब मैं इशारा करूंगा तब तुम्हें खाना खाना बंद कर देना है, लेकिन शर्त यही है कि तुम्हारे पत्तल में कुछ बचना नहीं चाहिए। युवक ने उनकी बात को अच्छी तरह से समझ लिया।
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जैसे ही महर्षि रमण ने इशारा किया, उसने खाना शुरू किया। पहले उसने बड़े-बड़े टुकड़े खाए। बाद में उसने छोटे-छोटे टुकड़े खाने शुरू किए, उसकी निगाह रमण पर ही लगी रही। उन्होंने जैसे ही इशारा किया, युवक ने पूरा टुकड़ा उठाकर मुंह में रख लिया। तब रमण ने कहा कि यही कर्मयोग है। अपना काम करते हुए भी परमात्मा का ध्यान रखना ही कर्मयोग है। कर्म करते हुए भी योगी की तरह जीवन बिताना ही सच्चा संन्यास है। युवक उनकी बात समझ गया और आभार व्यक्त करते हुए घर चला गया।
-अशोक मिश्र
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