मदन मोहन मालवीय को महामना की उपाधि दी गई थी। वह कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे। अपने हृदय की महानता के कारण सम्पूर्ण भारतवर्ष में ‘महामना’ के नाम से पूज्य मालवीयजी को संसार में सत्य, दया और न्याय पर आधारित सनातन धर्म सर्वाधिक प्रिय था। उन्होंने ही बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन राजाओं, नवाबों, अमीरों से चंदा इकट्ठा किया था। एक बार की बात है।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान काशी के राजा ने हिंदू समाज की समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया। उस सम्मेलन में कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह भी शरीक हुए। उन दिनों वे हिंदी में हिंदुस्थान नाम का अखबार निकालते थे। जब राजा रामपाल सिंह का नंबर आया, तो उन्होंने वहां उपस्थित श्रोताओं का मजाक उड़ाया। उन्होंने मंच से ऐसी-ऐसी बातें कही जिसको उन्हें नहीं कहना चाहिए था। उस समय मदन मोेहन मालवीय युवा थे। उन्होंने राजा के कान कहा कि आपको यहां उपस्थित श्रोताओं के बारे में ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए।
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इसके बावजूद जब राजा साहब नहीं रुके, तो थोड़ा क्रोध में मालवीय जी ने कहा कि यदि आप शिष्टतापूर्वक बात नहीं कर सकते, तो बैठ जाइए। इसके बाद राजा साहब सम्मेलन से लौट गए। कुछ दिनों बाद मालवीय जी के पास राजा साहब का पत्र आया कि मैंने उस दिन अच्छा नहीं किया, लेकिन मुझे लगता है कि मेरे समाचार पत्र के लिए एक निष्पक्ष संपादक की जरूरत है, यह गुण आपमें है। कुछ शर्तोँ पर मालवीय जी ने हिंदुस्थान समाचार पत्र के संपादक का दायित्व संभाल लिया।
-अशोक मिश्र
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