मप्र में मुख्यमंत्री के रूप में मोहन यादव को काम करते हुए लगभग 50 दिन पूरे हो गए हैं, लेकिन अभी तक सूबे में उनकी सरकार की धमक सुनाई नहीं दे रही है। दो महीने का समय प्रशासनिक सर्जरी करने और जन आशीर्वाद यात्राओं में ही खर्च हुआ है। इस वजह से प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति चरमराती नजर आ रही है, साथ ही प्रदेश की जनता में नैराश्य भाव झलकने लगा है। मध्य प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था के साथ ही दूसरे सभी क्षेत्रों पर शिवराज सिंह चौहान की छाप है, क्योंकि उन्होंने एक लम्बे अरसे तक प्रदेश पर शासन किया।
सचिवालय से लेकर जिला स्तर पर प्रशासन और पुलिस में न सिर्फ शिवराज सिंह के गण मौजूद थे, बल्कि उनकी धमक भी सुनाई दे रही थी। नए मुख्यमंत्री के रूप में मोहन यादव को सबसे पहले इसी असर को समाप्त करना चाहिए था। उन्होंने इस दिशा में काम शुरू भी किया, लेकिन अभी उसका असर दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। सूबे की नई सत्ता पर प्रशासन का रंग चढ़ने में काफी वक्त लग रहा है।
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नई सरकार में ‘नया’ तलाशना कठिन हो रहा है क्योंकि अभी कोई नवाचार शुरू ही नहीं हो पाया है। पहले की ही तरह भोजन, बैठकें और विश्राम की शृंखला सामने है। मुख्यमंत्री मोहन यादव की ‘बाडी लेंग्वेज’ पढ़ने में अभी नौकरशाही कामयाब नहीं हुई है। मुख्यमंत्री ने शीर्ष स्तर पर प्रशासनिक सर्जरी कर ली है किन्तु उसका फौरी असर दिखना अभी बाकी है। प्रशासन में तब्दीली का अहसास करने के लिए सन्देश सचिवालय से सड़क तक पहुंचना आवश्यक है।
हकीकत ये है कि बीते 18 साल में मध्यप्रदेश के चप्पे-चप्पे पर मामा शिवराज सिंह की छाप गहरा गयी थी। इस छाप से प्रदेश को मुक्त करना आसान काम नहीं है।
मुख्यमंत्री मोहन यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसी छाप से मुक्ति की है। इसके लिए संभागवार या क्षेत्रवार कार्ययोजना बनाकर कामयाबी हासिल की जा सकती है। इस समय प्रदेश की वित्तीय स्थिति बहुत खराब है। ऐसे में सरकार पर अपनी छाप बनाना भी आसान काम नहीं है। स्थानीय निकायों की हालत गौर करने लायक है। एक तरह से इन संस्थाओं के पास वेतन देने का भी पैसा नहीं है। ऐसे में नागरिक सुविधाओं की बहाली करना आसान नहीं है, जबकि सरकार की छवि इन्हीं संस्थाओं के कामकाज पर निर्भर करती है। मुमकिन है कि सरकार इस दिशा में कुछ सोच रही हो।
मध्यप्रदेश की नई सरकार के सामने नई चुनौतियों के साथ ही मंत्रियों का फौज-फाटा भी नया है। उसे सक्रिय करना आसान काम नहीं है। ऊपर से नए-पुराने छत्रपों को साधते हुए सरकार को लोकसभा चुनावों की तैयारी भी करना है। यह तय है कि मुख्यमंत्री मोहन यादव को लोकसभा चुनाव में प्रदेश के अलावा प्रदेश के बाहर भी इस्तेमाल किया जाएगा। ऐसे में उन्हें अभी से अपना ‘सेकेण्ड हैण्ड’ बनाकर तैयार कर लेना चाहिए जो उनके इशारों को समझे और उनकी व्यस्तता के बीच उनकी योजना के अनुसार सत्ता की मशीनरी को गतिशील बनाये रखे। इस काम में शिथिलता दिक्कतें पैदा कर सकती है।
अभी तक प्रदेश की नौकरशाही और पुलिस ‘फुलफार्म’ में काम करती नजर नहीं आ रही है। कहीं न कहीं कोई न कोई असमंजस है। इस असमंजस से उबरे बिना काम नहीं चलने वाला है। नई सरकार को पुरानी सरकार की तरह विज्ञापनबाजी से झांकी बनाने की गलती करने के बजाय जमीनी कामों पर ध्यान देना चाहिए। विज्ञापनों से अखबार के मालिकों का पेट भरता है जनता का मन नहीं। जनता का मन भरने के लिए वास्तविक कामों की आवश्यकता है। ये मुख्यमंत्री को तय करना होगा कि वे मामा मुख्यमंत्री की तरह लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं या मप्र के लौहपुरुष बनकर। उनके सामने दोनों विकल्प हैं, चुनाव उन्हें खुद करना है।
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मप्र के अनेक हिस्सों में पिछले दिनों जिस तरह से महिलाओं के साथ अपराधों की बढ़ आयी है, नैराश्य के कारण सामूहिक आत्महत्याओं की दुखदायी घटनाएं हुई हैं, उन्हें देखते हुए प्रदेश के दो बड़े शहरों में पुलिस आयुक्त प्रणाली सवालों के घेरे में आयी है। मुख्यमंत्री को नौकरशाही को भी अभयदान देकर काम करने की आजादी देना होगी।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-राकेश अचल
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