ईश्वर चंद विद्यासागर बचपन से ही दयालु प्रवृत्ति के थे। वह दूसरों को दुखी देखकर खुद दुखी हो जाते थे। एक बार की बात है। वह अपने घर के दरवाजे पर बैठे हुए थे। उन्होंने देखा कि एक भिखारी बहुत दीन स्वर में भिक्षा मांग रहा है। उसकी दशा देखकर ईश्वर चंद को दया आ गई। वह सोचने लगे कि उसकी मदद कैसे की जाए। जब भिखारी उनके घर के नजदीक आ गया, तो उन्होंने उस भिखारी से रुकने को कहा और दौड़कर अपनी मां के पास गए। उन्होंने अपनी मां से कहा कि मैं दरवाजे पर एक भिखारी को रोककर आया हूं। मुझे उसकी सहायता करनी है।
वह काफी गरीब और बीमार लगता है। मां मुझे कुछ दो, ताकि मैं उसकी मदद कर सकूं। यह सुनकर उनकी मां ने अपनी कलाई में पहने सोने के कंगन उतारते हुए कहा कि लो बेटा! तुम इसको बेचकर गरीबों की मदद करो। मां की बात सुनकर ईश्वर चंद काफी प्रसन्न हुए और अपनी मां से कहा कि मां, आप चिंता न करें, जब मैं बड़ा हो जाऊंगा, तब आपका यह कर्ज चुका दूंगा। आपको इससे अच्छा कंगन बनवा कर दूंगा। मां उनकी बात सुनकर चुप रह गईं।
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इस बात को कई साल बीत गए। जब ईश्वरचंद को पहली तनख्वाह मिली, तो वह सोने का कंगन खरीदकर मां के पास पहुंचे और उस कंगन को मां को देते हुए कहा कि मां, मैंने आज आपका कर्ज उतार दिया। मां ने हंसते हुए कहा कि मेरा कर्ज तो तब उतरेगा, जब मेरे बेटे को गरीबों की मदद करने के लिए मेरे कंगन की जरूरत नहीं होगी। ईश्वर चंद समझ गए कि उनकी मां क्या कहना चाहती है। उन्होंने आजीवन बंगाल के गरीबों और पीड़ितों की सेवा की। वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बंगाल के गरीबों, असहायों और दीनों पर खर्च कर दिया करते थे। वह अपनी मां की शिक्षा पर जीवन भर अमल करते रहे।
-अशोक मिश्र
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