भगवान दत्तात्रय के अनके गुरु थे। उन्होंने जीव-जंतुओं को भी अपना गुरु बनाया था। यह मिथक तो है, मगर इसके पीछे के भावबोध को गहराई से समझने की जरूरत है कि गुरु कोई भी हो सकता है। पेड़ हमें यह सिखाता है कि पत्थर खा कर भी फल दो। कुत्ता हमें स्वामिभक्ति सिखाता है। नदी हमें प्रवहमान बने रहना सिखाती है। पहाड़ हमें दृढ़ता सिखाते हैं। पक्षी हमें उड़ना सिखाते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम गुरु को पहचानें और उससे कुछ ग्रहण कर सकें। हम कदम-कदम पर सीखते हैं। जो सीखना चाहते हैं, वे कहीं से कुछ भी ग्रहण कर सकते हैं। पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र हैं, शिक्षक हैं। हर पुस्तक हमें कुछ न कुछ दे कर जाती है। जिनसे हम कोई सीख लेते हैं, वे हमारे गुरु हो जाते हैं। वे पशु-पक्षी हो सकते हैं, वे जड़ भी हो सकते हैं और चेतन भी। लेकिन प्रश्न यह है कि अब कितने लोग हैं जो सीखने की कोशिश करते हैं?
यह ऐसा भयानक समय है, जब मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी दूसरों को सिखाने की कोशिश करता पाया है। ऐसे समय में शिक्षक दिवस जैसी परिपाटी एक गहरी उदासीनता ले कर आती है। जो वेतनभोगी शिक्षक हैं, उनकी स्थिति क्या है, उस पर विचार करें, तो लगता है कि यह शिक्षक शब्द अपना प्रभाव ही खोता जा रहा है। सच बात तो यह है कि शिक्षकों का सम्मान ही लगभग खत्म होता जा रहा है। शिक्षकों को लोगों ने सरकारी दफ्तर के बाबुओं-सा कुछ समझ लिया है। इसलिए समाज में शिक्षकों को वैसा सम्मान बिल्कुल नहीं दिखता, जैसा आजादी के पहले या आजादी के कम से कम दो तीन दशकों तक तो था ही। शिक्षक की हालत साठोत्तरी कविता की तरह हो गई है। जैसे-जैसे हमारी कविता से छंद गायब होता गया, उसी तरह शिक्षकों का सम्मान गायब होता चला गया। अब दोनों ही लगभग बेतुके-से हो कर रह गए हैं। इन्हें तुक में लाना है। यही चुनौती है। मगर इस चुनौती को स्वीकार करते हुए ठोस काम करने की जरूरत है।
यह उपभोक्तावाद का समय है। बाजारवाद का काल है। छीजते जा रहे मूल्यों का दौर है। पारिवारिक रिश्ते तार-तार हो रहे हैं, अपनापन खत्म होता जा रहा है। ऐसे में शिक्षक नामक जीव के प्रति रागात्मकता का सवाल ही पैदा नहीं होता। समाज ऐसा स्वरूप लेता जा रहा है कि अब गिव एंड टेक ही हमारे जीवन के केंद्र में समा गया है। शिक्षक को लोग वेतनभोगी समझ कर दरकिनार करने की कोशिश करते हैं। हालत तो यह है कि उसे हमने शिक्षाकर्मी तक बना दिया है। दरअसल समाज का नजरिया घोर व्यावसायिक होता जा रहा है। संवेदनाएं खत्म होती जा रही है। यही कारण है कि शिक्षक को थोड़ा-बहुत ज्ञान देने वाले टूल के रूप में ही इस्तेमाल करने की मानसिकता बन चुकी है। इस दौर के बहुसंख्य छात्र पढ़ना भी नहीं चाहते और उनकी हालत देख कर शिक्षक उन्हें पढ़ाना भी नहीं चाहते।
दोनों तरफ से ऐसी विकृति पनप रही है कि शिक्षा और शिक्षक दोनों का विनाश होता जा रहा है। इसलिए सारे शिक्षकों से तो अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे कुछ क्रांति करें, मगर जो थोड़े-बहुत वैचारिक लोग बचे हुए हैं, उनसे यह अपेक्षा जरूर की जा सकती है कि वे अपने विचार-व्यवहार से विसंगति से परिपूर्ण समय में भी नये भारत के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब शिक्षक त्याग करें और अपने व्यक्तित्व को वैसा बनाएँ कि छात्र या समाज के दूसरे लोग दृष्टांत के रूप में शिक्षकों को प्रस्तुत कर सकें कि देखा, ये होते हैं शिक्षक…ऐसा होना चाहिए गुरु को। लेकिन ऐसा दृष्टांती गुरु या शिक्षक बनने के लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है, त्याग करना पड़ता है। लेकिन जब हमारी शिक्षक-बिरादरी साधनों की ओर निहारेगी, सुविधाओं के पीछे भागेगी, पैकेजों को अपना लक्ष्य बनाएगी, विलासितापूर्ण जीवन जीने की लिप्सा से ग्रस्त हो जाएगी, तो वह आदर्श शिक्षक बन ही नही सकेगी।
इस निर्मम समय में जबकि गहरी आत्मीयता, अपनापन तिरोहित होता चला जा रहा है, तब शिक्षकों से मूल्यों को स्थापित करने की अपेक्षा बेमानी-सी लगती है, मगर फिर भी अपेक्षा की जानी चाहिए। शिक्षकों को अपने आचरण से यह साबित करना होगा कि वह जो कहता है, वैसा ही जीवन भी जीता है। वह केवल वेतनभोगी कर्मी नहीं है, वरन वह समाज की दिशा बदलने वाला नायक भी है। शिक्षक को केवल शिक्षक ही बचा सकता है।
गिरीश पंकज