पिछले कई सालों से महंगाई लगातार बढ़ रही है। खाद्यान्न के दाम बढ़ते जा रहे हैं। कोरोनाकाल के चलते काफी संख्या में बेरोजगार हुए लोगों में से लगभग चालीस से पचास प्रतिशत लोग ही वापस नौकरी पाने या स्वरोजगार में कामयाब हो चुके हैं। लोग मंहगाई और बेरोजगारी के चलते परेशान हो रहे हैं। उधर, खाद्यान्न की कालाबाजारी करने वाले व्यापारी सरकारी नीतियों में छेद करके अधिकाधिक लाभ उठा रहे हैं। सरकारी गोदामों और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लोगों को दिए जाने वाले खाद्यान्न की कालाबाजारी रोकने के लिए केंद्र सरकार ने पंद्रह साल में पहली बार केंद्रीय पूल से 15 लाख टन गेहूं खुला बाजार बिक्री योजना (ओएमएसएस) के तहत बेचने का फैसला किया है। इतना ही नहीं, सरकार ने स्टॉक की लिमिट भी तय कर दी है। गेहूं व्यापारियों/थोक विक्रेताओं पर तीन हजार टन की स्टॉक सीमा लगाई गई है।
खुदरा विक्रेताओं पर यह सीमा 10 टन, बड़ी खुदरा बिक्री श्रृंखला के प्रत्येक बिक्री केंद्र के लिए 10 टन और उनके सभी डिपो पर तीन हजार की स्टॉक रखने की सीमा तय की गई है। प्रसंस्करणकर्ताओं के मामले में यह सीमा वार्षिक स्थापित क्षमता का 75 फीसदी तय की गई है। कीमतों को नियंत्रित करने के लिए आम चुनाव शुरू से पहले मार्च, 2024 तक गेहूं पर स्टॉक सीमा लगा दी गई है। पिछली बार स्टॉक लिमिट वर्ष 2008 में लगाई गई थी। केंद्र सरकार का यह फैसला वैसे तो काफी प्रशंसनीय है, लेकिन यह नौकरशाही की लापरवाही और भ्रष्टाचार के चलते प्रभावहीन साबित हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
यह सर्वविदित है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों और अंत्योदय परिवारों को मिलने वाले राशन में सबसे ज्यादा गड़बड़ी की जाती है। कई बार तो राशनकार्ड धारक दुकानों के चक्कर ही लगाते रह जाते हैं और वहां का स्टॉक कब खत्म हो गया, इसका पता ही नहीं चलता है। बायोमीट्रिक प्रणाली होने के बावजूद धांधली की जाती है। 15 लाख टन गेहूं के बाजार में आ जाने के बाद उम्मीद है कि गेहूं और आटे की बढ़ती कीमतों पर लगाम लग सकेगी। जब बाजार में माल भरा पड़ा होगा, तो कालाबाजारियों को मजबूरन गेहूं की कीमत घटानी होगी।