स्वामी विवेकानंद की याददाश्त बहुत अच्छी थी। वह जो कुछ भी पढ़ते थे, उन्हें कई दिनों तक याद रहता था। एक बार उनकी याददाश्त को लेकर शिकागो शहर के एक लाइब्रेरियन ने पूछा, तो उन्होंने कहा कि यह व्यक्ति की मन लगाकर पढ़ने और उसके ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है। इसके लिए व्यक्ति को रोज ध्यान लगाने की जरूरत होती है। उस लाइब्रेरी के कर्ताधर्ता को स्वामी विवेकानंद की याददाश्त पर बहुत आश्चर्य हुआ।
जब स्वामी विवेकानंद भारत लौटे तो उनके बहुत सारे शिष्य हो गए। उनमें से कई मुसलमान भी थे। एक बार की बात है। एक वकील विवेकानंद से काफी प्रभावित थे। उन्होंने अपने शहर में आने पर अपने घर रुकने का निवेदन स्वामी जी से किया। स्वामी जी संयोग से उस शहर में पहुंचे तो उस मुसलमान शिष्य के घर रहने लगे। उनसे मिलने बहुत सारे लोग आते रहते थे। एक दिन खेतड़ी राज्य के सचिव विवेकानंद जी से मिलने आए।
उन्होंने देखा कि एक मुसलमान के घर में स्वामी विवेकानंद आराम कर रहे हैं। उनको कुछ लोगों ने घेरा हुआ था। वे अपनी अपनी समस्याओं का समाधान पूछ रहे थे। उन्हें यह देखकर बहुत अटपटा लगा। थोड़ी देर बाद उन्होंने स्वामी विवेकानंद से पूछ ही लिया कि आप हिंदू संन्यासी होकर मुसलमान के घर पर रह रहे हैं और उसका यहां का बना हुआ खाना भी खा रहे हैं। इससे आपको बुरा नहीं लगता है। विवेकानंद ने कहा कि मैं हिंदू हूं। मैंने वेदों का अध्ययन किया है। उसमें कहीं भी जात-पात, ऊंच-नीच या धर्म के आधार पर भेदभाव की बात नहीं लिखी है। जिन्हें वेदों का सही ज्ञान नहीं है, वही इस तरह के भेदभाव करते हैं। हर मनुष्य एक समान है, धर्म उसका भले ही अलग-अलग हो। यह सुनकर वह सचिव शर्मिंदा हो गया और उसने भविष्य में भेदभाव न करने का संकल्प लिया।
-अशोक मिश्र