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बालिका शिक्षा की अलख जगाने वाली महिलाएं

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संजय मग्गू
इन दिनों सावित्री बाई फूले और फातिमा शेख को लेकर सोशल मीडिया पर जोरदार बहस चल रही है। बहस का मुद्दा यह है कि सावित्री बाई फुले की साथी बताई जा रही फातिमा शेख वास्तविकता में थीं या काल्पनिक चरित्र है। दरअसल, इस बहस की शुरुआत तब हुई, जब मोदी सरकार के प्रखर आलोचक रहे पूर्व पत्रकार और वर्तमान में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में मीडिया सलाहकार दिलीप मंडल ने सोशल मीडिया पर यह लिखा कि साबित्री बाई फुले की साथिन बताई जा रही फातिमा शेख मेरे द्वारा ही रची गई है। इस काल्पनिक चरित्र को मैंने ही पैदा किया है। बस फिर क्या था? इतिहास के पन्ने पलटे जाने लगे। फातिमा शेख के काल्पनिक होने और काल्पनिक न होने की बहस ने जोर पकड़ लिया। वैसे फातिमा शेख को काल्पनिक बताने वाले दिलीप मंडल का दावा गलत है क्योंकि 10 अक्टूबर 1856 में मायके गई सावित्री बाई फुले ने अपने पति सत्यस्वरू ज्योतिबा को जो पत्र लिखा था, उसमें फातिमा का नाम है। पुणे से 1924 से 1030 के बीच प्रकाशित होने वाली पत्रिका मजूर में एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जिसमें सावित्री बाई के साथ एक महिला है जिसे फातिमा शेख बताया गया है।  भले ही फातिमा शेख के बारे में आज ज्यादा जानकारी हमारे पास न हो, लेकिन उनके अस्तित्व से इनकार कर पाना सहज नहीं है। सावित्री बाई को आधुनिक युग की पहली महिला शिक्षिका बताया जा रहा है, तो उनके साथ-कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली फातिमा शेख का महत्व भी कम नहीं आंकना चाहिए। जिस युग में सावित्री बाई ने लड़कियों की शिक्षा की अलख महाराष्ट्र में जगाई थी, उस दौरान उन्हें कितनी परेशानियां उठानी पड़ी होंगी। कहा जाता है कि सावित्री बाई पर उन दिनों लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास के दौरान जलील किया जाता था, उन पर कंकड़-पत्थर और गोबर फेंका जाता था। एक महिला, वह भी दलित, उसने बालिका शिक्षा के महत्व को समझते हुए जो चिन्गारी महाराष्ट्र में फूंकी थी, वह अपने आप में एक क्रांतिकारी विचार था। ऐसी दशा में स्वाभाविक है कि सावित्री बाई से कम फातिम शेख को भी मुसीबतें नहीं सहना पड़ा होगा। जो लोग दलित महिला के घर या स्कूल में अपनी बच्चियों को भेजने के विरोधी थे, उन्होंने मुस्लिम महिला फातिमा को छोड़ दिया होगा, उन्हें अपमानित नहीं किया होगा, ऐसा कतई नहीं सोचा जा सकता है। इतने अपमान और लांछन सहने के बावजूद यह दोनों महिलाएं अपने कर्तव्य पथ से डिगी नहीं, तो यह उन दोनों महिलाओं का साहस और अपने लक्ष्य और उद्देश्य के प्रति डटकर खड़े रहने की भावना है। सावित्री बाई जैसी महिलाएं कहीं युगों बाद पैदा होती हैं। हमारे देश की हर वह महिला प्रणम्य है जिसने अपने देश, समाज और संस्कृति के उत्थान के लिए सब कुछ सहा और अपने लक्ष्य को हासिल करके ही दम लिया। जाति, धर्म, भाषा, प्रांत जैसे संकुचित विचारों को त्यागकर सबका यथायोग्य आदर और सम्मान करना चाहिए।

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