संजय मग्गू
सर्दी का मौसम हो और स्वेटर की चर्चा न हो, ऐसा भला संभव है। यदि पिछली सदी के सातवें आठवें दशक के स्वेटरों की आज के युग से तुलना करें, तो स्वेटरों का न केवल स्वरूप बदला है, प्रकृति भी बदली है और बाजार भी बढ़ा है। महंगे से महंगा, लेटेस्ट से लेटेस्ट डिजाइन आजकल बाजार में मिल जाएंगे, लेकिन एक चीज का अभाव आपको जरूर महसूस होगा यदि आप अपने परिवार और समाज के प्रति संवेदनशील होंगे। वह कमी है ममता और अपनत्व की। जो लोग इन दिनों चालीस-पचास साल की आयु प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें याद होगा कि उन दिनों घर के कामों से फुरसत मिलने के बाद घर की महिलाएं सलाई और ऊन का गोला लेकर घर के आंगन या छत पर बैठ जाती थीं। उनकी अंगुलियां बड़ी कुशलता से चलती रहती थी, इसके साथ ही चलती रहती थी उनकी जुबान। स्वेटर बुनते समय घर के झगड़े सुलझाए जाते थे, बहू अड़ोस-पड़ोस के घर की महिलाओं से सास की बुराई बतियाती थी, तो सास बहू की। महिला प्रपंच जारी रहने के साथ-साथ स्वेटर भी एक आकार ग्रहण करता जाता था। जैसे कोई जादूगर अपने हाथ की सफाई दिखा रहा हो। स्वेटर में सलाइयों के सहारे फंदा दर फंदा पड़ता जाता था, लेकिन रिश्तों में फंदे कभी नहीं पड़ते थे। सास-बहू, जेठानी-देवरानी जैसे तमाम परिजनों की बुराई-बड़ाई एक तरह से उनके मनोरंजन का साधन हुआ करता था। जब स्वेटर तैयार हो जाता था, तो स्वेटर पहनने वाले को उसमें एक सुगंध सी महसूस थी, स्वेटर बुनने वाली की मेहनत, प्रेम और स्नेह की। जब जब स्वेटर पहना जाता था, तो उस स्वेटर से एक अपनत्व सा महसूस होता था। मां, पत्नी, बहन, बेटी, भतीजी के हाथ के बुने स्वेटर न केवल सर्दियों में ऊष्मा देते थे, बल्कि रिश्तों को भी ऊष्मा प्रदान करते थे। यह किसी एक घर की कहानी नहीं हुआ करती थी, बल्कि उन दिनों तो यह घर-घर की कहानी हुआ करती थी। अपने प्रेम को जाहिर करने का एक बेहतरीन जरिया हुआ करता था स्वेटर। प्रेमिकाएं अपने प्रेमी को अपने हाथ से बुना स्वेटर पहनाकर जो खुशी महसूस करती थीं, आज की प्रेमिकाएं महंगे से महंगा स्वेटर खरीदकर देने के बाद भी उस सुख का अनुभव नहीं कर सकती हैं। उन दिनों शायद स्वेटर नहीं रिश्ते बुने जाते थे, जो स्थायी होते थे। लेकिन मशीनी युग ने उस दौर को निगल लिया। आज मां, बहन, बेटी, पत्नी या प्रेमिका को कई दिनों तक अपनी अंगुलियों और आंखों को तकलीफ देने की जरूरत ही नहीं रही। जेब में रकम है, तो एक से बढ़कर एक डिजाइन और किस्म के स्वेटर किसी भी दुकान या शापिंग मॉल तुरंत खरीदा जा सकता है। बाजार ने जैसे भावनाओं को कुंद कर दिया है। आजकल उपहार मिले या खरीदे गए स्वेटर में वह गर्माहट महसूस ही नहीं होती है, जो मां की कांपती अंगुलियों और कमजोर निगाहों के सहारे बुने गए स्वेटर में महसूस होती थी। मानो मां स्वेटर नहीं, अपनी ममता को बुनती थी उन दिनों। खैर, अब तो वे दिन लौटकर आने वाले नहीं हैं। कुछ वर्षों के बाद शायद वह पीढ़ी भी अतीत का हिस्सा हो जाए, जिसने प्रेम से बुने गए स्वेटर को पहना होगा। बस, रह जाएंगी बुने हुए स्वेटर के किस्से-कहानियां।
तीन-चार दशक पहले स्वेटर के साथ बुने जाते थे रिश्ते
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