बचपन में हरियाली के बीच बैठकर अक्सर मैं जिस हिमालय पर्वत को देखा करता था, आज कई वर्षों बाद जब में वापस उसे देखने लगा तो मैंने उसमें काफी बदलाव देखे। गांव की सूरत भी पहले से काफी बदल गई है। स्कूलों की हालत में काफी हद तक सुधार आ गया है। जल व्यवस्था हेतु घर घर में पाइप लाइन बिछी हुई दिखी, हर घर में शौचालय बना हुआ नजर आया। अधिकांश घर की छत पत्थर की नहीं थी बल्कि वह पक्के लिंटरों में तब्दील हो चुके हैं। सच में, मैंने जैसा बचपन में देखा था गांव अब वैसा नहीं है। भौतिक आधारभूत सुविधाओं को देखकर बहुत अच्छा लगा, पर वह नहीं दिखा जो बचपन में मुझे देखकर अच्छा लगता था। वर्तमान समय में हो रहे परिवर्तन के चलते गांव का वातावरण बदला हुआ सा लगने लगा है। यह कहना है हल्द्वानी स्थित ल्वेशाली गांव के 23 वर्षीय युवक पंकज तिवारी का, जो सालों बाद वापस अपने गांव आये हैं।
पंकज का कहना है कि एक समय ऐसा था, जब उनके गांव से क्विंटल के हिसाब से सब्जियां मैदानी क्षेत्रों को भेजी जाती थी। जिससे गांव वालों को अच्छी आमदनी हो जाया करती थी और वह सुखी संपन्न अपना जीवन यापन करते थे। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध के चलते लोगों ने खेती का काम छोड़ना शुरू कर दिया है या कम कर दिया है। अब आलम यह है कि उन्हें स्वयं खाने के लिए भी सब्जियां मैदानी क्षेत्रों से मंगानी पड़ रही है।
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ग्रामीण अच्छा जीवन यापन करने के लिए गांवों को छोड़कर मैदानी क्षेत्रों की ओर रुख करने लगे हैं। अब उनके हरे भरे लहलहाते खेत आज किसी सूखे बेजान बंजर जमीन की तरह पड़े हुए हैं। वही ग्रामीण आज शहरों में अधिक मेहनत परंतु कम पारिश्रमिक वाली पद्धति पर काम करने को मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि परिवार के लालन पालन की जिम्मेदारियां उनके अकेले कंधों पर आ गयी हैं। पहले अक्सर पहाड़ों पर पत्थर से बने छतों के मकानों का राज होता था, जिन्हें देखकर मन में अनुभूति होती थी कि हम पहाड़ों पर रह रहे हैं।
गांवों में बाखली (कई घरों को मिला कर बना मकान) हुआ करती थी जिसमें पांच-छह परिवार साथ रहा करते थे। आज वही बाखली पहाड़ों में बढ़ते पर्यटन के कारण भले ही आय का माध्यम बन रहा हो, लेकिन इसका नुकसान पहाड़ों को उजाड़कर किया जा रहा है। पर्यटन के आवास हेतु होटलों/ रिर्साटों/भवनों का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों में किया जा रहा है जिसके लिए जंगलों व पहाड़ों का कटान लगातार किया जा रहा है। पैसे की लालच और रोजगार के कारण हो रहे बदलाव के से हम स्वयं ही पहाड़ों को नुकसान पहुचा रहे हैं।
दरअसल, ग्रामीण समुदाय के लिए भौगोलिक परिस्थितियां ही उनके रोजगार का सहारा हुआ करती थीं जो अब आधुनिकरण की भेट चढ़ रही हैं। इसका खामियाजा प्रत्येक व्यक्ति को भुगतना पड़ रहा है। कहीं न कहीं ग्रामीण महिलाओं को इसका सबसे अधिक नुकसान सहन करना पड़ रहा है। अक्सर कई कार्यों में महिलाओं की सहभागिता देखने को मिलती थी, पर वहीं कार्य अब मशीनों से सम्पन्न किये जाने से उनका रोजगार छिन गया है। मशीनों के आने के बाद भले ही किसी कार्य की गति तेज हुई है, लेकिन स्थानीय रोजगार कम हो गये हैं और जो कार्य वर्तमान समय में किये भी जा रहे हैं
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उनके लिए स्थानीय लोगों की अपेक्षा बाहर के मजदूरों को लाया जा रहा है। वर्तमान में, ग्राम स्तर पर आजीविका के अवसर न के बराबर हो गये हैं। जिससे लोग अपना घर छोड़ कर पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं। इससे पहाड़ों का अस्तित्व खतरे में आ गया है। सब आधुनीकरण की होड़ में दौड़ रहे हैं। सरस्वती देवी कहती हैं कि आधुनिक उपकरणों और टेक्नोलॉजी ने न केवल ग्रामीणों का रोजगार छिना है बल्कि गांव वालों को ही गांव से दूर कर दिया है।(चरखा)
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
-बीना बिष्ट
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