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हमें मानसिक बीमार बना रहा है सोशल मीडिया

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कोई एक डेढ़ दशक पहले तक लोग शराब, सिगरेट, पान-मसाला, भुक्की, हुक्का और ड्रग्स का सेवन करते थे। नशे के लिए कुछ और भी चीजें उपलब्ध हुआ करती थीं। समाज में इसे अच्छा नहीं समझा जाता था। मिडिल क्लास और लोअर मिडिल क्लास के लोग इसका सेवन आमतौर पर खुलेआम नहीं करते थे। जिनके बारे में नशीले पदार्थ के सेवन की बात जाहिर हो जाती थी, उसे रिश्तेदार, मोहल्ले वाले अच्छा आदमी नहीं समझते थे। फिर, धीरे-धीरे इसकी स्वीकार्यता समाज में बढ़ी और इसे स्टेटस सिंबल से जोड़ दिया गया। नशा करना फैशन बन गया। लेकिन एक ऐसा नशा पूरे समाज में घर करता जा रहा है जिसको समाज नशा मानता ही नहीं है और वह है सोशल मीडिया।

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इसने पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सोशल मीडिया रूपी नशे के शिकार हैं, लेकिन वे इसको लेकर गंंभीर नहीं हैं। कुछ लोग तो इस बात पर गर्व करते हैं कि उनका छोटा सा बच्चा स्मार्ट फोन की तरह स्मार्ट है। वह स्मार्टफोन भले ही न बोल पाए, लेकिन यदि उसको मोबाइल पकड़ा दिया जाए, तो वह पलक झपकते ही इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे ऐप पर जाकर वीडिया देखने लगता है। सच कहें, तो यह कतई गर्व की बात नहीं है। यदि किसी का बच्चा ऐसा करता है, तो यह गंभीर चिंता का विषय है। वह एडिक्ट हो रहा है। लोग सुबह उठते ही सबसे पहले अपना फोन चेक करते हैं। ह्वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर डाली गई पोस्ट, वीडियो और रील्स को देखने के बाद ही वे आगे कुछ करते हैं। 

शाम को आफिस से थके आने के बाद लोग घर में किसी की मदद करने की जगह थकान उतारने के लिए रील्स देखने लगते हैं। थोड़ी देर देखने की मंशा रखने वाले लोग एक रील्स देखी, फिर दूसरी देखी, फिर तीसरी देखी और फिर यह सिलसिला तब बंद होता है, जब तीन-चार घंटे बीत चुके होते हैं। अगर कोई इनसे पूछे कि पहली रील्स में क्या था और उसका सब्जेक्ट क्या था, तो शायद ही कोई बता पाए। यह एक घातक नशे की तरह हमारे शारीरिक सिस्टम को प्रभावित कर रहा है। जैसे ही थोड़ी फुरसत मिलती है, मन ललचाने लगता है सोशल मीडिया पर नजर दौड़ाने के लिए। हाथ अपने आप मोबाइल पर पहुंच ही जाते हैं। एक बार हाथ में मोबाइल आया नहीं, समझो तीन-चार घंटे हुए स्वाहा।

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हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि हम अपना कितना कीमती समय उस काम में लगा रहे हैं जो हमें मानसिक रूप से बीमार तो बना ही रहा है, हमें अपने सामाजिक सरोकारों से भी दूर कर रहा है। हम अपने परिवार, समाज और नाते-रिश्तेदारों, मित्रों से दूर हो रहे हैं। हम वास्तविक दुनिया की जगह आभासी दुनिया में जी रहे हैं। इसी आभासी दुनिया को हमने सच मान लिया है। यदि हमें इससे निजात पानी है, तो सबसे पहले अपना मानसिक स्तर मजबूत करना होगा। जब यह ठान लिया कि बस इतने समय तक ही सोशल मीडिया पर रहना है, तो उतने समय से एक सेकेंड भी ज्यादा आभासी मंच पर समय नहीं बिताना है। बच्चों के लिए भी कड़े नियम बनाने होंगे। बच्चा रोता है, तो रोने दें। आज वह रो रहा है, लेकिन कल उसके हंसने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।

-संजय मग्गू

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