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घरों में अकेले गुजर-बसर करने को अभिशप्त बुजुर्ग

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संजय मग्गू
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि जो क्षण आप जी रहे हैं, वही क्षण आपका है। जो बीत गया, वह लौटकर आने वाला नहीं है। जो आने वाला है, उस पर आपका अधिकार ही नहीं है। इसलिए जो क्षण आप जी रहे हैं, उसी को मस्त होकर जीएं। महात्मा बुद्ध का यह दर्शन ‘क्षणवाद’ कहलाता है। बुद्ध  की यह बात कहीं से भी गलत नजर नहीं आता है। जिंदगी भर आदमी भविष्य सुधारने के चक्कर में अपना वर्तमान स्वाहा करता रहता है। अंत में बचता है अकेलापन, जर्जर और रोगग्रस्त काया। जिन बच्चों के लिए अपना वर्तमान स्वाहा किया, वे बच्चे ठीक उस तरह उड़ जाते हैं अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में जिस तरह चिड़िया के बच्चे उड़ना सीखते ही घोसला छोड़कर चले जाते हैं फिर कभी न लौटने के लिए। ऐसी स्थिति घरों में अकेले पड़ गए मां-बाप क्या करें। अकेलापन उनके दिन का चैन और रात की नींद उड़ा देता है। बेटा बहू, बेटी-दामाद के साथ-साथ उनके बच्चों की याद उन्हें विचलित कर देती है। कमजोर और रोगग्रस्त  शरीर से वे एक दूसरे के लिए कितना कर सकते हैं। जब दंपति अधिक वय के हों, तो दिक्कत और भी बढ़ जाती है। बुजुर्ग मियां-बीवी एक दूसरे बात करें भी तो क्या और कितना? यह एकल परिवार की सबसे बड़ी विसंगति है। संयुक्त परिवार में बुजुर्गों की सेवा हो जाती थी। बेटे-बेटियों के बच्चों के साथ समय कट जाता था, लेकिन अब हालात यह है कि बुजुर्गों को अपना समय बिताने के लिए टॉकिंग पार्लर खोलने की नौबत आ गई है। देश के कुछ राज्यों में अब जगह-जगह टॉकिंग पार्लर खुलने लगे हैं। इन पार्लरों में जाकर बुजुर्ग अपना समय बिताते हैं। एक दूसरे के साथ गप्प मारते हैं, चुटकुले सुनाते हैं। अपने जीवन की खट्टी-मीठी यादों को एक दूसरे से शेयर करते हैं। यदि शरीर साथ दे, नाच-गाना भी कर लेते हैं। भजन-कीर्तन, गप या कवि गोष्ठी जैसी गतिविधियां भी इन पार्लरों में होती हैं। इन पार्लरों के लिए कोई फीस नहीं ली जाती है। कोई अपने घर से कुछ ले आया, तो ठीक। नहीं लाया तो भी ठीक। इसके लिए बस जगह चाहिए। वह जगह पार्क भी हो सकती है, किसी का घर भी। हमारे समाज की यह कैसी विडंबना है कि खुशी का पल जीने के लिए अपनों के बजाय गैरों को खोजना पड़ रहा है। और जो अपने हैं, वह अपना एक नया संसार बसाए, मस्त हैं। अपने ही शहर में नौकरी, रोजगार की व्यवस्था न हो पाने की मजबूरीउन्हें अपने मां-बाप या अन्य परिजनों से दूर किए हुए है। यह भी देखने में आया है कि समाज में समृद्ध और अभिजात्य कहे जाने वाले तबके के  बुजुर्ग लोग कुछ ज्यादा ही अकेले हैं। इस तबके के लोगों ने अपने बच्चों में इतनी महत्वाकांक्षाएं भर दी होती हैं कि उनको जहां कहीं भी अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन मिलता है, बिना एक पल गंवाएं चल देते हैं। वह यह भी नहीं सोचते हैं कि उनके चले जाने के बाद बूढ़े मां-बाप का क्या होगा? घर के नौकर-चाकर वह अनुभूति नहीं करा सकते हैं, जो एक बेटा या बेटी करा सकती है।

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