समूचे विश्व में 9 अगस्त को आदिवासी या मूल निवासी दिवस मनाया जाता है। महासभा का यह महत्वपूर्ण कदम कहा जाना चाहिए। हम आदिवासी दिवस का बहाने ही तो आदिवासी बंधुओं की दशा और दिशा पर गंभीर विमर्श करते हैं, वरना उनकी सुध लेता ही कौन है। सिवा उनकी दुनिया के कुछ चिंतक लोग। भारत सहित पूरी दुनिया में आदिवासी निवास करते हैं। सचमुच ये आदिवासी हैं। एक आंकड़े के अनुसार भारत में लगभग दस करोड़ आदिवासी हैं। ये सचमुच बहुत पुराने निवासी है। इनको हम वनवासी भी कह सकते हैं। आज इनकी एक बड़ी आबादी वनप्रांतर में निवास करती है, जहाँ वे अपना जीवन अपने हिसाब से जीते हैं। कम से कम सुविधाओं में सुखमय जीवन कैसे जिया जा सकता है, यह हमारे आदिवासी बंधु हमें बखूबी बता सकते हैं। बताते ही हैं। मैंने बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में पाँच दिनों की पदयात्रा करके उनके सुंदर जीवन को बहुत निकट से देखा है। शहर के तथाकथित सभ्य लोग यह समझते है कि आदिवासी, वनवासी या मूल निवासी पिछड़े हुए हैं। वे पिछड़े हुए नहीं हैं।
दरअसल उन्होंने आवश्यकताओं को बेहद न्यून कर लिया है। वे थोड़े में मस्त रहते हैं। उनको विशालकाय भवन नहीं चाहिए। उनको त्वरित गति से भागने वाले वाहन नहीं चाहिए। उनको तैरने के लिए स्वीमिंग पूल नहीं चाहिए। वे जगल की नदी या तालाब में तैर कर ही खुश हो लेते हैं। कहने का आशय यह है कि आदिवासी समाज अर्थशास्त्र पढ़े बगैर ही आवश्यकता विहीनता के सिद्धांत को महत्व देता रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, जो आदिवासी दिवस पर विचारणीय है कि हम उनको अलग प्रजाति का जीव न समझे। वे हमारे ही अपने बंधु हैं। हमारे सगे हैं। जैसे हमारे परिवार के लोग आवश्यकता अनुसार विभिन शहरों में निवास करते हैं, उसी तरह हमारे आदिवासी अपने हिसाब से हम सबसे दूर वनों में निवास करते हैं। उनकी अपनी सुंदर दुनिया है। उनके अपने रीति रिवाज है, प्रथाए हैं, उनके अपने लोक गीत हैं, संगीत हैं, उनके अपने सुंदर, आकर्षक वाद्ययंत्र हैं। उनके नयनाभिराम पहरावे हैं। उनका अपना खानपान है , जो हमसे भले ही काफी भिन्न हो, पर वह असंगत नहीं है। उनकी मनोवृत्ति के अनूकूल है। उसे जब कभी हम देखते है, तो आकर्षित होते हैं। यह संतोष की बात है कि अपने देश में विचाराधीन समान नागरिक संहिता में आदिवासी रीति रिवाजों को मुक्त रखा गया है। उन्हें इस संहिता के अनुरूप जीने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। उन पर संहिता लादना भी नहीं चाहिए। वे सब जब सदियों से अपनी एक परम्परा की जी रहे हैं, तो अचानक उनको नई धारा में बहने के लिए बाध्य करना अपराध से कम न होगा।
यह और बात है कि धीरे-धीरे आदिवासी समाज मुख्यधारा की और आकर्षित हो रहा है। लेकिन एक साजिश भी हो रही है, जिस को समझने की आवश्यकता है। भोले -भाले आदिवासियों के साथ कुछ चालाक धर्मावलम्बी खेल करके उनको अपने धर्म में शामिल करने की कोशिश करते हैं। यह खेल पिछले अनेक वर्षों से हो रहा है। आदिवासी बहुल राज्यों में एक मिशन के तहत धर्मांतरण का खेल हो रहा है। मासूम वनवासी बंधु व उसमें फंस जाते हैं और एक खास धर्म को अपना कर फिर उसके अनुसार जीवन जीने लगते हैं। दुष्परिणाम यह होता है कि वे फिर आदिवासी नहीं रह जाते। उनकी अपनी उपासना पद्धति खत्म हो जाती है। वे अपने रीति-रिवाजों से दूर हो जाते हैं। समय के साथ फिर उनको नई जीवन-शैली रास आने लगती है। वर्षों से यह षड्यंत्र चल रहा है। हालांकि इसको रोकने के लिए दूसरी संगठन सक्रिय हुए हैं लेकिन उन्होंने काफी देर कर दी। अब तो भारत में लाखों आदिवासी धर्मांतरित हो चुके हैं। फिर अभी एक बड़ी तादाद वनवासियों की बची हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। वनवासी कल्याण आश्रम और वन बंधु परिषद् जैसी संस्था इस दिशा में सक्रिय हो रही हैं। उनके कारण धर्मांतरण का दुष्चक्र रुका भी है।
गिरीश पंकज