जब मनुष्य ने सबसे पहले पहिये का आविष्कार किया था, तो उसने यह कतई नहीं सोचा था कि एक दिन यही पहिया यानी चक्र पूरे मानव समाज के भौतिक विकास की आधारशिला बना जाएगा। आज दुनिया में जितना भी तकनीकी विकास हुआ है, उसमें किसी न किसी रूप में चक्र यानी पहिया मौजूद है। इस विकास ने मानव समाज को पूर्णता तो प्रदान की, लेकिन हमारे सामने एक समस्या भी खड़ी कर दी। इसी पहिये के सहारे बनी साइकिल, मोटरसाइकिल, स्कूटी, बस, कार ने हमें आलसी बना दिया।
कई सदियों तक बैलगाड़ी, घोड़ा गाड़ी और अन्य वाहनों में भी लगकर पहिए ने हमें इतना अपाहिज नहीं बनाया था कि हम मशीन के गुलाम हो जाएं। सौ मीटर जाना है, तो भी बाइक चाहिए। सत्रह को पांच से गुणा करना है, तो कैलकुलेटर चाहिए। मानो बड़ी-बड़ी गणनाएं बिना कैलकुलेटर के कर ही लेंगे। यह जो हमारी मानसिकता है न! कि कौन दिमाग खपाए, कौन इतनी दूर पैदल जाए, इसी ने सारा बेड़ा गर्क कर रखा है। मोबाइल फोन आने से पहले लोगों को अपने प्रिय जनों के टेलीफोन नंबर मुंहजबानी याद रहते थे।
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बच्चों को टेबल्स यानी पहाड़े, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत सहित अन्य भाषाओं के व्याकरण के सूत्र याद रहते थे। लेकिन इन दिनों अगर किसी कारणवश मोबाइल फोन खो जाए, तो पूरी दुनिया से कनेक्शन खत्म। अपने घर के ही किसी सदस्य का मोबाइल नंबर ही याद नहीं। यह इसी ‘कौन दिमाग खपाए’ वाली प्रवृत्ति का नतीजा है। यही प्रवृत्ति एक दिन हमारे दिमाग को कुंद कर देगी। हम जब अपने दिमाग का इस्तेमाल करना बंद कर देंगे, तो इससे हमारी रचनात्मकता प्रभावित होगी। हम रचना करने में समर्थ नहीं होंगे। जिस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर आज लोग इतने उत्साहित हैं, एक दिन यही एआई हमारी सारी रचनात्मकता, सक्रियता और सोचने-समझने की क्षमता को निगल जाएगी। हम कुछ सोच पाने की स्थिति में ही शायद नहीं होंगे। नतीजा क्या होगा? दो का पहाड़ा भी हमारी आने वाली पीढ़ी बिना कैलकुलेटर के नहीं बता पाएगी।
सोचना बंद करने का मतलब है कि अपनी कल्पना शक्ति को खो देना। जो कल्पनाशील नहीं होगा, वह सपने कैसे देखेगा? सपने देखना बंद करने का मतलब है, साक्षात पशु हो जाना। शायद पशु-पक्षी ही सपने नहीं देखते हैं। इंसान और पशु-पक्षी में मौलिक अंतर क्या है? इंसानों का मस्तिष्क अन्य पशु-पक्षियों से ज्यादा विकसित है। इंसान सोच सकता है, सपने देख सकता है, पशु नहीं। इसलिए बराय मेहरबानी मशीनों की गुलामी करना छोड़कर अपने दिमाग को खपाइए। उससे काम लीजिए। उसे सोचने, समझने और कुछ नया करने को मजबूर कीजिए। नहीं तो एक दिन हमारी भावी पीढ़ी सचमुच पशु में बदल जाएगी और समाज को इस स्तर तक लाने के लिए हमारे पुरखों द्वारा किया गया सारा श्रम बेकार चला जाएगा। सदियों से लगातार हमारे पुरखों ने क्रमिक रूप से मानव मस्तिष्क को विकसित किया है। इसमें कई पीढ़ियां खप गई हैं। तब हम इस अवस्था में पहुंच पाए हैं।
-संजय मग्गू
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