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दंगे हो या युद्ध, इसका ज्यादातर खामियाजा निर्दोषों को ही भुगतना पड़ता है। हमास की आतंकी कार्रवाई का नतीजा गाजापट्टी और इजराइल की जनता भुगत रही है। हमारे देश में भी जितने दंगे अब तक हुए हैं, गेहूं के साथ घुन की तरह निर्दोषों को भी पिसना पड़ा। कुछ सिस्टम की गड़बड़ी के कारण, कुछ न्याय व्यवस्था में हुई देरी के कारण। गुजरात में वर्ष 2002 में सांप्रदायिक दंगे हुए थे।
अहमदाबाद के सरखेज इलाके से छह मुसलमानों को बम बनाने और चरमपंथी होने के आरोप में 8 मई 2002 को ताज मोहम्मद पठान, इकबाल ढिबड़िया, हैदर खान दीवान, मोहीन खान पठान, अशरफ मकरानी और शहजाद शेख को गिरफ़्तार किया गया था। इसी साल सितंबर में अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इन सभी छहों अभियुक्तों को बरी कर दिया। मामले की सुनवाई के दौरान ताज मोहम्मद पठान, अशरफ मकरानी और शहजाद शेख की मृत्यु हो गई जबकि मोहिन खान पठान गुजरात छोड़ चुके हैं। 21 साल तक तमाम जलालत झेलने के बाद इन छह लोगों को बम बनाने के आरोप से मुक्ति मिली, तो क्या फायदा हुआ? इनके वे 21 साल तो बरबाद हो गए जिसमें वे अपने परिवार का अच्छी तरह पालन पोषण कर सकते थे। अपनी माली हालत सुधार सकते थे। अपने बीवी, बच्चों की अच्छी तरह से देख भाल कर सकते थे। यह छह लोग हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो सुबह खाना खाते हैं, तो शाम को क्या खाएंगे, इसके लिए उन्हें सोचना पड़ता है।
बड़ी हो रही बेटी का विवाह कैसे होगा? उसकी फीस कहां से भरी जाएगी? बेटे को पढ़ा-लिखाकर एक सभ्य नागरिक बनाने के लिए देश के आम आदमी को जितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है, उन सबसे इन छहों लोगों को भी गुजरना पड़ा था। इनके साथ दिक्कत यह भी थी कि इनके माथे पर बम बनाने के आरोपी होने का ठप्पा भी लगा था। बीवी के गहने, जमीन-जायदाद तो जमानत कराने और मुकदमा लड़ने में ही खर्च हो गए। बेटियों की शादी किसी तरह मांग-जांच कर हो गई। लड़के अनपढ़ ही रहे। कमाने वाला कोई था नहीं, बदनामी के चलते नाते-रिश्तेदारों ने नाता ही तोड़ लिया। मोहल्ले वाले बात करने से भी घबराते थे। काम धंधा चौपट हो गया। रोजी-रोटी कमाएं या फिर कचहरी के चक्कर लगाएं, यह परेशानी अलग से थी। जहां काम करते थे, वहां नौकरी से हटा दिया गया। जो काम धंधा करते थे, लोग सहयोग करने को तैयार नहीं थे। ऐसी स्थिति में 21 साल बाद अगर इन छहों अभियुक्तों को कलंक से मुक्ति मिली भी, तो उसका क्या फायदा? वे जीवन के सुनहरे 21 साल तो लौटने वाले नहीं हैं। जो व्यक्ति 40 साल की उम्र में गिरफ्तार हुआ था, आज वह 61 साल का हो चुका है।
शरीर में इतना बल ही नहीं बचा कि वह मेहनत मजदूरी कर सके। जाएं तो कहां जाएं? करें तो क्या करें? यह सवाल बड़ी शिद्दत से इनके सामने खड़ा है। यह सवाल तो हर उस आदमी के सामने खड़ा हो, जो इस व्यवस्था का शिकार हुआ है। देश में हजारों, लाखों लोग ऐसे मिल जाएंगे जो कई सालों तक जेल में सजा काटने के बाद बरी कर दिए जाते हैं। ऊपर से इन्हें कोई इसका मुआवजा भी नहीं मिलता। सरकारें पल्ला झाड़ लेती हैं। जिसने इन्हें फंसाया था, वह कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए अपनी राह चला जाता है। रह जाता है सिर्फ शून्य।
संजय मग्गू
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