महात्मा बुद्ध ने जब बुद्धत्व प्राप्त कर लिया, तो उन्होंने लोगों को पाखंड, विद्वेष, घृणा और हिंसा से दूर रहने का उपदेश देना शुरू किया। बाद में जब उन्होंने संघ की स्थापना की तो उनके संघ में बच्चों ने भीआना शुरू किया। बौद्ध धर्म से दीक्षित बच्चों की जब शिक्षा पूरी हो जाती थी, तो वे विभिन्न क्षेत्रों में जाकर समाज की सेवा करते थे। यह संघ ठीक गुरुकुल की तरह काम करता था, लेकिन इन संघों में युद्ध की शिक्षा नहीं दी जाती थी।
एक बार की बात है। जब संघ के कुछ बौद्ध शिष्यों की शिक्षा पूरी हो गई, तो महात्मा बुद्ध की उपस्थिति में शिष्य भिक्षुओं से पूछा जाने लगा कि वे किस क्षेत्र में जाकर समाज में संघ के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करना चाहते हैं। जो भी शिष्य जिस क्षेत्र में जाने की रुचि जताता, उसे उस क्षेत्र में भेज दिया जाता था। इनमें महात्मा बुद्ध का प्रिय शिष्य आनंद भी था। उसी वर्ष उसकी शिक्षा पूरी हुई थी। जब आनंद की बारी आई, तो उसने कहा कि वह सनापरांत गांव में जाकर संघ के सिद्धांतों और बौद्ध दर्शन का प्रचार प्रसार करना चाहता है। यह सुनकर सब अवाक रह गए क्योंकि सनापरांत गांव एक कुख्यात गांव था।
उस गांव के बारे में यह मशहूर था कि उस गांव के लोग बहुत दुष्ट हैं। वे अपने गांव के आसपास किसी साधु-संत को फटकने तक नहीं देते हैं। राह चलते लोगों को लूट लेना, उनका कत्ल कर देना सनापरांत गांव के लोगों का पेशा था। लोगों के पूछने पर आनंद ने बताया कि जहां दुष्ट लोग रहते हों, वास्तव में वहीं संघ के सिद्धांत के प्रचार की जरूरत है। सनापरांत गांव के लोगों को अहिंसक बनाना ही एक बौद्ध भिक्षु का कर्तव्य होना चाहिए। चिकित्सक की सबसे ज्यादा जरूरत वहीं होती है, जहां रोगी होते हैं। यह सुनकर सभी चुप हो गए।
-अशोक मिश्र