केंद्र की भाजपा सरकार अपने नौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में 30 मई से 30 जून तक हर राज्य में बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित कर रही है। बिहार में भी बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी है। भाजपा के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पिछले बीस साल तक बिहार पर सहयोगी पार्टी के तौर पर राज करने वाली भाजपा में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसको आगे करके वोट हासिल किया जा सके। बिहार भाजपा में खींचतान भी कम नहीं हैं। राजद और जदयू में रहे सम्राट चौधरी छह साल पहले भाजपा में आए हैं। अब वे बिहार भाजपा के अध्यक्ष हैं। उनके अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर भाजपा के पुराने और वरिष्ठ नेताओं में असंतोष है। बिहार भाजपा में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि भाजपा को कभी यहां पूर्ण बहुमत नहीं मिला। जब भी सत्ता में भागीदार हुई तो नीतीश कुमार की बी टीम के तौर पर जानी गई। अब बिहार के मुख्यमंत्री भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ पूरे विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम पर निकल पड़े हैं।
12 जून को पटना में होने वाली महागठबंधन की बैठक में शामिल राजनीतिक दलों की संख्या पर ही तय होगा कि नीतीश कुमार अपने इरादे में कितना सफल हो पाते हैं। यदि नीतीश कुमार विपक्षी दलों को एक साथ एक मंच पर ला पाने में सफल हो जाते हैं, तो यह बिहार भाजपा के लिए ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए चिंता की बात होगी। राजद सांसद मनोज झा तो यहां तक कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में भाजपा बस एक या दो सीटों पर ही सिमट कर रह जाएगी। बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद अखिलेश सिंह का भी यही दावा है। लेकिन अखिलेश सिंह विपक्ष के एकजुट होकर चुनाव लड़ने पर ही यह परिणाम आने की बात कहते हैं। 12 जून को होने वाली विपक्ष की बैठक के बाद भाजपा प्रधानमंत्री मोदी की एक सभा कराने के लिए जोर आजमाइश करने में लगी हुई है।
वैसे भी नौ साल की उपलब्धियां गिनाने के लिए पूरे देश के 51 शहरों में मोदी की सभाएं होनी हैं। उनमें से एक बिहार में भी होनी है। इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब प्रदेश में कोई ऐसा नेता न हो जिसको आगे करके भीड़ जुटाई जा सके या वोट मांगा जा सके, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दम पर कितनी सीटें दिला पाएंगे? कर्नाटक चुनाव परिणाम ने यह मिथक भी तोड़ दिया कि प्रधानमंत्री मोदी हारी हुई बाजी को जीत में बदल देने में सक्षम हैं। वैसे भी जब भी कांग्रेस, जदयू और राजद ने मिलकर चुनाव लड़ा है, भाजपा के लिए संकट ही पैदा हुआ है।
वर्ष 2015 में राजद, जदयू और कांग्रेस ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था तो भाजपा को 243 में से 53 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। वहीं महागठबंधन को 173 सीटें हासिल हुई थीं। इस बार भी महागठबंधन आपसी तालमेल के साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है। ऐसी स्थिति भाजपा के लिए बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। भाजपा को अभी और मेहनत करनी होगी।
संजय मग्गू