सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने की मांग पर सुनवाई चल रही है। इस दौरान जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि 1954 के आदेश के पहले भाग को पढ़ने से तो यही स्पष्ट होता है कि जम्मू कश्मीर में भारतीय संविधान को अपवादों और संशोधनों के साथ अपनाया गया था। इसलिए इसे जम्मू कश्मीर का संविधान कहा जा सकता है लेकिन जो अपनाया गया था वह भारतीय संविधान था। जस्टिस खन्ना के मुताबिक अनुच्छेद 370 बहुत लचीला है उनका कहना है कि आमतौर पर संविधान वक्त और स्थान के साथ लचीले होते हैं। जो कि संविधान एक बार बनते हैं लेकिन लंबे वक्त तक बने रहते हैं इसलिए 370 में संशोधन किया जा सकता है और जम्मू-कश्मीर पर लागू होने वाले भारत के संविधान में जो कुछ भी हो रहा है उसे आत्मसात कर लिया जाए, तो वहीं इसके जवाब में वरिष्ठ एडवोकेट सुब्रमण्यम ने कहा कि अनुच्छेद 370 के प्रावधानों की एक तरफ व्याख्या करना संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा।
उनके मुताबिक मामले को देखने के कई नजरिया हो सकते हैं पहला ऐतिहासिक दूसरा लिखित और तीसरा सैद्धांतिक और आखिरी ढांचागत नजरिया से भी देखा जा सकता है। वरिष्ठ अधिवक्ता सुब्रमण्यम की तरफ से कहा गया की व्यवस्था संघवाद का एक समझौता था, संघवाद एक अलग तरह का सामाजिक अनुबंध है और अनुच्छेद 370 इस संबंध का ही उदाहरण है। इस संज्ञा सिद्धांत को अनुच्छेद 370 के अंतर्गत ही पढ़ा जाना चाहिए और इसे निरस्त नहीं किया जा सकता है।
उनका कहना था कि इस मामले में राष्ट्रपति द्वारा शक्ति का एक तरफ प्रयोग था आपको बता दें की याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम ने यह कहा कि राष्ट्रपति के पास अनियंत्रित शक्ति नहीं है, उन्होंने संविधान पीठ को बताया कि अनुच्छेद 370 खंड एक के तहत शक्ति का उद्देश्य आपसी समझ के सिद्धांत पर आधारित है, उनके मुताबिक विलय के समक्ष जम्मू कश्मीर अन्य राज्यों की तरह नहीं था उसका अपना संविधान था और हमारे संविधान में विधानसभा और संविधान सभा दोनों मान्यता प्राप्त है, मूल ढांचा दोनों के संविधान से निकल जाएगा। गोपाल सुब्रमण्यम के मुताबिक डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी संविधान के संज्ञा होने और राज्यों को विशेष अधिकार की वकालत की थी।