मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों के परिणामों से जाहिर है कि देश में हिंदी भाषी पट्टी में भाजपा अपना दबदबा बरकरार रखने में कामयाब रही है। जहां तक तेलंगाना का सवाल है, तो वहां मुख्य लड़ाई कांग्रेस और सत्तासीन बीआरएस के बीच थी। देखा जाए तो तेलंगाना ही नहीं, दक्षिण भारतीय राज्यों में भाजपा की कोई खास पैठ नहीं रही है। एक कर्नाटक था, वह भी पिछले विधान सभा चुनावों में भाजपा से छिटक गया और वहां कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई।
तेलंगाना में कांग्रेस द्वारा कर्नाटक की तर्ज पर महालक्ष्मी योजना का ऐलान किया। पर सवाल यह है कि आखिर क्या कारण रहे कि लाख लुभावनी योजनाओं के बावजूद कांग्रेस हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में धराशाई क्यों हुई। लोक लुभावन योजनाओं के बारे में कांग्रेस ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी। राजस्थान में कांग्रेस की पुरानी पेंशन योजना, चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना, परिवार की महिला मुखिया को इंदिरा गांधी स्मार्ट फोन योजना के तहत 1.35 करोड़ महिलाओं को मोबाइल फोन के साथ इंटरनेट डाटा देने जैसी योजनाओं की जगह जनता ने भाजपा की महिला सुरक्षा, जिले में महिला थाना खोलने, छात्राओं को स्कूटी देने और रसोई गैस भी कांग्रेस से कम कीमत पर देने पर भरोसा जताया।
वहीं, छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार की छत्तीसगढ़ गृहलक्ष्मी योजना जिसके तहत महिलाओं के बैंक खातों में सालाना 15,000 रुपये देने के स्थान पर जनता ने भाजपा की रानी दुर्गावती योजना, महतारी वंदन योजना पर ज्यादा भरोसा जताया और मध्य प्रदेश में जनता ने खासकर महिलाओं ने लाडली बहना योजना पर ज्यादा भरोसा जताया और दोबारा फिर भाजपा सरकार बनाकर महिलाओं की ताकत का एहसास कराया। गौरतलब है कि राजस्थान में जहां पुरुषों के मुकाबले 0.19 फीसदी महिलाओं ने अधिक मतदान किया, छत्तीसगढ़ में 90 में से 50 सीटों पर पुरुषों के मुकाबले अधिक मतदान किया।
वहीं मध्य प्रदेश में लाडली बहना योजना रंग लाई और महिलाएं भाजपा के पक्ष में वोट करने के लिए जमकर निकलीं। साफ है कि इस चुनाव में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और महिलाएं गेम चेंजर साबित हुईं। हार के पीछे के कारणों के बारे में नेता कुछ भी कहें असलियत यह है कि कांग्रेस अपने बागियों को मनाने में नाकाम रही जबकि भाजपा सफल रही। कांग्रेस को गुटबाजी से चुनाव तक राहत नहीं मिली जबकि भाजपा ने गुटबाजी पर चुनाव के आखिरी चरण में सफलता पाई।
राजस्थान में इसका सबसे बड़ा़ कारण सचिन पायलट प्रकरण रहा जिसका निर्णय न कर पाने में हाईकमान असमंजस में रहा। फिर 22.71 लाख युवाओं की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता जिसने पहली बार मतदान किया जो पेपर लीक मामलों से निराश था, दुखी था, क्रोधित था। सरकार उसके आक्रोश को भांपने में नाकाम रही। यह आक्रोश सात गारंटियों और लाल डायरी पर भारी पड़ा। इस सबके कारण कांग्रेस जीती हुई बाजी हार गई।
अति आत्मविश्वास ने चुनाव में पार्टी को सक्रिय भूमिका से जहां रोका, वहीं भाजपा का चुनाव अभियान बेहद सक्रिय और प्रभावी रहा। इस चुनाव से इतना तो तय है कि अब 2024 की राह न तो कांग्रेस के लिए आसान है और न ही इंडिया गठबंधन के लिए। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, यदि वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव जीत जाती तो इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की हैसियत कुछ और ही होती।
हार के बाद गठबंधन के सहयोगी सपा जैसे दल अब और आंखें दिखायेंगे, गठबंधन में रहने के लिए अपनी और शर्तें लगायेंगे और चुनाव में ज्यादा सीटों पर अपना दावा ठोकेंगे। ममता बनर्जी और मुखर होंगी और वह भी अब राज्य में अपने प्रभुत्व के चलते ज्यादा सीटों के लिए दबाव डालेंगी। वैसे राजनीति कब किस ओर करवट लेती है, यह कहना मुश्किल होता है। इतिहास इसका सबूत है। लिहाजा, 2024 में कांग्रेस की भूमिका क्या होगी और इंडिया गठबंधन का क्या हश्र होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इतना तो तय है कि कि इंडिया गठबंधन के लिए जिसका संगठन और ढांचा ही बेहद कमजोर है, 2024 में मोदी मैजिक से पार पाना, मोदी को टक्कर देना बहुत ही मुश्किल है। इसमें दो राय नहीं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-ज्ञानेन्द्र रावत