सुख और दुख जीवन के दो पहलू हैं। सुख के पलों को इंसान हमेशा अपनी स्मृति में बसाए रखना चाहता है। यह बात पूरी तरह सही है कि दुख के साथ कोई नहीं जीना चाहता है। हर व्यक्ति दुख के पलों से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहता है। लेकिन कुछ दुख ऐसे होते हैं जो जीवन भर पीछा नहीं छोड़ते हैं। किसी के जीवन में दुखद या मुश्किल पल नहीं आए हों, ऐसा कोई व्यक्ति पूरी दुनिया में नहीं मिलेगा। एक जैसे दुख का अलग-अलग व्यक्तियों पर एक जैसा असर नहीं होता है। परिवार में यदि किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है, तो उससे बड़ा कोई दुख नहीं होता है।
परिवार के सदस्यों पर भी मौत का असर एक समान नहीं होता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई अपना दुख बताने लगे, दुखी व्यक्ति को सांत्वना देने लगे या दुखी व्यक्ति खुद अपनी पीड़ा किसी के सामने बताने लगे, तो दुख की सघनता कम होने लगती है। एशिया महाद्वीप खासतौर पर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि में जब किसी की मौत होती है, तो घर की महिलाएं जोर-जोर से विलाप करती हैं, पुरुष थोड़ा गुपचुप रोते हैं या दबे स्वर में रोते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि फूट-फूटकर या विलाप करके रोने वाली औरतें या पुरुष अपने दुख से थोड़ा जल्दी उबर जाते हैं। उत्तर भारत में किसी की मौत पर 13 दिन यानी तेरहवीं तक शोक मनाने की परंपरा रही है। अब इन दिनों को कहीं तीन दिन तो कहीं पांच दिन तक समेट दिया गया है। अमेरिकी समाज में शोक मनाने के लिए पांच दिन का अवकाश दिया जाता है।
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि दुख के पलों को किसी के साथ साझा करने से दुख कम होता है। किसी परिजन की मौत ही नहीं, किसी भी किस्म का दुख हो, तो चुप रहना खतरनाक है। उस दुख को लोगों से साझा करें। दुख बांटने से दुख कम होता है। यदि आपको पता है कि फलां आदमी दुखी है, तो संकोच न करें। उसके पास जाएं, उसका दुख जानें। जरूरी समझें तो अपने दुख के पलों को उससे साझा करें। कहते हैं कि सुख के पलों के साथी सभी बनना चाहते हैं, लेकिन दुख के पलों में कोई साथ नहीं देना चाहता है। आप ऐसे पलों में साथ दें।
दुख कोई भी यदि बहुत गहरा नहीं है, तो कुछ दिनों बाद आदमी वैसे ही उबर जाएगा। लेकिन यदि आप दुख के पलों के साथी बनते हैं, तो वह दुख भले ही कुछ दिनों बाद भूल जाए, लेकिन आपको वह आजीवन याद रखेगा। सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज ने अघोषित रूप से यह दायित्व हर किसी को दिया है। दुख के समय व्यक्ति के सही या गलत होने की तुला (तराजू) लेकर न बैठ जाएं। हमारे समाज में पहले की अपेक्षा लोगों से जुड़ाव कम होता जा रहा है। गांव हो या शहर का कोई मोहल्ला, लोग सुख की बात तो छोड़िए, दुख में भी शरीक होना नहीं चाहते हैं। समय जो नहीं है किसी के पास। बहुत सामाजिक उमड़ी तो एक लाइन का शोक संदेश भेज दिया और हो गई कर्तव्य की इतिश्री। ऐसा करने बचें, यह कतई उचित नहीं है।
-संजय मग्गू