अगर किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के सामने धनपत राय का नाम लिया जाए, तो शायद वह थोड़ी देर बाद समझ जाए कि किसके संबंध में बात कही जा रही है, लेकिन अगर उसी आदमी के सामने मुंशी प्रेमचंद का नाम लिया जाए, तो वह तत्काल बता देगा कि वह हमारे देश के कथा सम्राट के बारे में बात कही जा रही है। हिंदी भाषी शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जिसने मुंशी प्रेमचंद की कोई कहानी या उपन्यास न पढ़ा हो। बात 1898 की है। बनारस के क्वींस कालेज में दसवीं (मैट्रिक) पास लड़के-लड़कियों का ग्यारहवीं में दाखिला लेने के लिए कतार लगी हुई थी।
उनमें एक धनपत राय भी थे। उनके मार्क्स कम थे, तो उन्हें दाखिला देने से इनकार कर दिया गया। उसी साल बनारस में एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदू कॉलेज खोला था। उसमें भी धनपत राय को दाखिला नहीं मिला। उनकी गणित कमजोर थी और गणित में काफी कम मार्क्स थे। उन्होंने सोचा कि कुछ कमाकर खर्च चलाया जाए और यहीं रहकर गणित की पढ़ाई की जाए ताकि अगले साल एंट्रेंस एग्जाम में पास होकर दाखिला लिया जाए। संयोग से एक वकील के यहां पांच रुपये पर ट्यूशन पढ़ाने का काम मिल गया।
ट्यूशन फीस के रूप में मिले पांच रुपये में से ढाई रुपये वह अपने घर भेज देते थे क्योंकि तब तक उनके पिता की मौत हो चुकी थी और परिवार को बोझ उनके ही सिर पर था। ढाई रुपये में वह अपना खर्च चलाते थे। महीने के अंत में दो पैसे ही बचे, तो एक-एक पैसे का चना खरीदकर खाया। अगले दिन वह दो रुपये वाली गणित की कुंजी को बेचने गए, तो वहां खड़े एक व्यक्ति ने पहले सारी जानकारी ली और 18 रुपये महीने पर उन्हें अपने कालेज में पढ़ाने का आफर दिया। इसके बाद तो धनपत राय निखरकर मुंशी प्रेमचंद बन गए। जिसे पूरी दुनिया ने जाना।
-अशोक मिश्र