गुजरात के राजकोट के गेम जोन और दिल्ली के बेबी केयर सेंटर में हुए हादसे में सबसे बड़ी समानता यह है कि दोनों जगहों पर स्थानीय प्रशासन ने हद दर्जे की लापरवाही बरती। दोनों ही जगहों पर मासूम बच्चे या तो जिंदा जले या फिर दम घुटने से मर गए। दिल्ली के बेबी सेंटर में जिन सात बच्चों की मौत हुई, उन्होंने तो अभी ठीक से आंखें भी नहीं खोली थीं। वे अपनी मां का ठीक से स्पर्श भी नहीं कर पाए थे। वे मां की लोरियों को सुन और प्यार भरी थपकी को महसूस कर पाते, इससे पहले ही सरकारी अधिकारियों की लापरवाही और भ्रष्टाचार ने उनको मौत की नींद सुला दिया। पांच बच्चों को भर्ती करने की जगह पर बारह नवजात शिशुओं को भर्ती करके पैसे कमाने की हवस ने सात शिशुओं को निगल लिया। जिस बिल्डिंग में बेबी केयर सेंटर खोला गया था, उसके नीचे अवैध रूप से गैस रिफिल किया जा रहा था।
स्थानीय प्रशासन की आंखों में शायद मोतियाबिंद था, जो उसे दिखाई नहीं पड़ा। दिखता भी कैसे, पैसे की खनक ने उनको अपनेजमीर की आवाज को सुनने लायक छोड़ा ही कहां था? नतीजा, सात बच्चों का जीवन शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया। इस क्रूर व्यवस्था ने उन्हें मानो मरने पर मजबूर कर दिया। ठीक ऐसा ही गुजरात के राजकोट में हुआ। पैसे की खनक ने अंतरात्मा को कहीं गहरे दफन कर देने पर मजबूर कर दिया। सरकार और स्थानीय प्रशासन ने कभी यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि इतनी भीड़भाड़ वाले इलाके में यदि कभी कोई हादसा हुआ, तो बचाव के रास्ते और इंतजाम क्या-क्या हैं? पिछले चार साल से गेम जोन का मालिक युवराज सिंह सोलंकी, उनका पार्टनर प्रकाश जैन, मैनेजर नितिन जैन और राहुल राठौड़ धड़ल्ले से अपना कारोबार चला रहे थे।
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कितने अफसोस की बात है कि राजकोट शहर मार्ग और मकान विभाग के इंजीनियर सिद्धार्थ जानी और पुलिस स्टेशन के तत्कालीन पीआई वीआर पटेल ने जांच भी नहीं की और एनओसी की फाइल पर दस्तखत कर दिया। स्वाभाविक है कि दस्तखत करने की भरपूर कीमत भी वसूली गई होगी। इन अधिकारियों को भरपूर कीमत देने के बाद फायर एनओसी लेने की जरूरत ही क्या रह गई। सो, फायर एनओसी भी नहीं ली गई। अपनी गर्दन बचाने के लिए युवराज सिंह सोलंकी गेम जोन के भीतर जाने वाले हर व्यक्ति से एक फार्म पर दस्तखत करवाता था कि यदि किसी किस्म का कोई हादसा होता है, तो उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।
अब जब दोनों जगहों पर मिलाकर लगभग 34 कीमती जीवन नष्ट हो चुके हैं, तो दोनों जगहों पर छानबीन और धरपकड़ का नाटक किया जा रहा है। दूसरे इलाकों में भी जांच की जा रही है। कुछ आरोपी पकड़े गए हैं, कुछ पकड़े जाएंगे, लेकिन सवाल यह है कि जो 34 चिराग बुझ गए हैं, उनके परिजनों का क्या होगा? उनका दुख कैसे कम होगा? उनको ढांढस कौन बंधाएगा? जिनके बच्चों की असामयिक मौत हुई है, उनकी क्षतिपूर्ति क्या पैसे से की जा सकती है? कतई नहीं। सच तो यह है कि कुछ दिन तक जांच-पड़ताल का नाटक चलेगा और फिर व्यवस्था अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगेगी। इस व्यवस्था का कुछ नहीं किया जा सकता है।
-संजय मग्गू
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