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अब तो प्रलय से बचाने का सपना बेचने लगीं कंपनियां

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यह बाजार है। बाजार सदियों से रहे हैं और जब तक मानव सभ्यता रहेगी, बाजार कायम रहेगा। व्यवस्था किसी भी किस्म की हो। वर्तमान व्यवस्था ने जन्म दिया है बाजारवाद को। यह बाजारवाद इतना शक्तिशाली है कि वह मिट्टी को सोना बनाकर बेच सकता है। और लोग बड़ी खुशी से मिट्टी को सोना जानकर खरीदने को तैयार होंगे। इसी बाजारवाद ने अमेरिका में डूम्स डे (प्रलय का दिन) इकोनॉमी नाम की एक नई खिड़की खोल दी है। बाजारवादी व्यवस्था ने लोगों को प्रलय के दिन बचाने की गारंटी देने के लिए जमीन के नीचे बंकर बनाकर खाने-पीने की व्यवस्था शुरू कर दी है। अमेरिका की कुछ कंपनियों ने अमेरिकियों की प्रलय के दिन की चिंता को भुनाना शुरू कर दिया है। कुछ ऐसे रिहायशी इलाके बनने शुरू हो गए हैं जिसमें प्रलय के दिन से बचने के सारे इंतजाम होंगे। यह सब कुछ उस तरह ही है, जैसे पिछले कुछ सालों से चंद्रमा पर जमीन बेचने का धंधा शुरू हुआ था।

दुनिया भर के लोगों ने कुछ कंपनियों के माध्यम से जमीनें खरीदी थीं। लूना सोसाइटी इंटरनेशनल और इंटरनेशनल लूनर लैंड रजिस्ट्री नाम की कंपनियों ने तो बाकायदा चांद पर प्लाट काटकर बेचने शुरू कर दिए थे। एक एकड़ जमीन की कीमत भी बहुत सस्ती सिर्फ 37.50 अमेरिकी डॉलर रखी गई थी जो भारतीय मुद्रा में लगभग तीन-सवा तीन हजार के आसपास बैठती है। ऐसा कहा जाता है कि हमारे देश के बहुत सारे लोगों के अलावा कुछ फिल्मी हस्तियों ने भी चांद पर जमीन खरीदी थी। दिवंगत फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने भी चांद पर जमीन खरीदी थी, ऐसी खबरें मीडिया में आई थीं। जबकि सच यह है कि चांद किसी की निजी संपत्ति नहीं है। चांद पर न तो जमीन खरीदी जा सकती है और न बेची जा सकती है। अब अमेरिका में यह नया खेल शुरू हुआ है।

बाजारवादी व्यवस्था पहले लोगों में जरूरत पैदा करती है, उसके बाद उत्पाद पैदा करती है। आप लोगों को कुछ साल पहले तक हर कार्यक्रम में दिखाया जाने वाला विज्ञापन याद ही होगा कि क्या आपके टूथपेस्ट में नीम है? इस बाजार ने हमारे देश में सदियों से उपयोग में लाए जाने वाले दातून को चलन से बाहर करने के लिए पहले टूथ पाउडर और ब्रश इजाद किया। टूथ पाउडर की जगह बाद में पेस्ट आया। फिर नीम, नींबू और नमक जैसे टोटके अख्तियार किए जाने लगे। जो लोग अपने घर में नमक और तेल से दांत साफ करते थे।

नीम, बबूल या दूसरे किस्म के पेड़ों की दातून का इस्तेमाल करते थे, उन्हें पिछड़ा, गंवार, अनपढ़ कहकर शर्मिंदा इसी बाजार ने किया। नतीजा यह हुआ कि हमारे घरों से वे सभी चीजें गायब हो गईं जिसको हम प्रकृति से सीधे उपयोग में लाते थे। बाजारवादी व्यवस्था ने प्रकृति से मुफ्त में मिलने वाली उपयोगी वस्तुओं को छीनकर महंगे दामों पर मिलने वाली वस्तुओं को थमा दिया। यह बाजारवादी व्यवस्था अब प्रलय से बचाने का सपना बेचने लगी है। निकट भविष्य में हमारे देश में यह कंपनियां अपना दफ्तर खोलकर बैठ जाएं, तो ताज्जुब नहीं होगा।

-संजय मग्गू

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