यह कैसी विडंबना है कि मिनी फैमिली कांसेप्ट के जन्मदाता यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में लोग अब संयुक्त परिवारों में रहना पसंद करने लगे हैं और हम संयुक्त परिवार को त्यागकर अपने बाल-बच्चों को लेकर अलग रहने को फैशन समझने लगे हैं। यदि यह चलन कुछ दशक तक और जारी रहा, तो हमारे समाज से बुआ, मौसी, मामा, चाचा जैसे रिश्ते सिर्फ किस्से कहानियों में रह जाएंगे। सिंगल और कैप्सूल फैमिली के चलन ने हमारे समाज में कई तरह की विसंगतियों को जन्म दिया है। इसकी वजह से उन परिवारों के बुजुर्गों की दिक्कत बढ़ गई है जो अपने बच्चों के परिवार से बिछड़ गए हैं या बिछड़ने पर मजबूर कर दिए गए हैं। एक तो छोटा परिवार सुखी परिवार की अवधारणा ने सिंगल चाइल्ड कांसेप्ट को बढ़ावा दिया है। लोग सिर्फ दो बच्चों तक ही परिवार को सीमित रखने पर जोर दे रहे हैं।
किसी परिवार में अगर दो बच्चे, एक बेटा-एक बेटी या फिर दो बेटी अथवा दो बेटे हैं, तो ऐसे परिवारों में से कुछ रिश्तों की समझ इन परिवारों की जो तीसरी पीढ़ी होगी, उसको नहीं होगी। एक बेटा-एक बेटी वाले परिवार की तीसरी पीढ़ी के बच्चे बुआ को जानेंगे, लेकिन चाचा और चाची जैसे रिश्ते की माधुर्यता से वंचित रहेंगे। वहीं बेटी के बच्चे मौसी के प्यार से महरूम रहेंगे। ठीक ऐसी ही स्थितियां अन्य किस्म के परिवारों की तीसरी पीढ़ी में पैदा होंगी। जबकि संयुक्त परिवार में सारे रिश्तों की गंभीरता और प्रेम का अनुभव बच्चे करते थे। संयुक्त परिवार में रहने वाले बच्चे एक उम्र तक अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त बाबा-दादी, चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-फूफा की निगरानी में पलते-बढ़ते थे और एक मजबूत रिश्तों के जाल में आजीवन बंधे रहते थे।
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ये रिश्ते नाते संकट के समय में एक संबंल बनकर उनको आगे बढ़ने को प्रेरित करते थे। अगर जीवन में कोई ऊंच नीच हो जाती थी, तो सब मिलकर उसका समाधान खोजते थे। लेकिन अब ऐसा बहुत कम होता है। बड़े होने पर बच्चे देश या शहर से दूर जाकर नौकरी करने लगे, वहीं घर बसा लिया। अब उनके पास न अपने मां-बाप के लिए समय है, न रिश्तेदारों के लिए। ऐसे में उनके मां-बाप बुढ़ापे में अकेले रहने को अभिशप्त हैं।
अकेलापन तब और बढ़ जाता है, जब उनमें से कोई एक साथ छोड़ जाता है। ऐसा अकेलापन एक नारकीय यातना में तब्दील हो जाता है। इस यातना को कई दशकों तक अमेरिका और यूरोपवासी भोगते रहे हैं। आखिर उनकी समझ में अब आ गया है कि संयुक्त परिवार ही उनकी इस तरह की सभी समस्याओं का एकमात्र हल है। उन्होंने अब अपने बेटे-बेटियों, पौत्र-पौत्रियों के साथ रहने लगे हैं। संयुक्त परिवार में रहने से अब बुजुर्ग जहां खुश रहने लगे हैं, वहीं उनकी औसत आयु भी बढ़ गई है। परिवार के साथ रहने का मोह उनमें जीवन की प्रत्याशा पैदा करता है। बुढ़ापे में बेहतर देखभाल और आत्मिक संतोष उन्हें मरने भी नहीं देता है।
-संजय मग्गू
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