संन्यास ग्रहण करने से पहले स्वामी विवेकानंद का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। स्वामी विवेकानंद को वेदांत की बहुत अच्छी जानकारी थी। संन्यासी होते हुए भी देश की पराधीनता उन्हें बहुत कचोटती थी। यही वजह थी कि उन्होंने भगिनी निवेदिता के माध्यम से क्रांतिकारियों को संगठित होकर अंग्रेजों से लड़ने की प्रेरणा दी और अनुशीलन समिति का गठन हुआ। स्वामी विवेकानंद सन 1892 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित धर्म संसद में भाग लेने से पहले भारत भ्रमण के दौरान राजस्थान आए। वह एक गांव में रुके। उन्होंने देखा कि उस गांव के लोग पानी के लिए बहुत परेशान हैं। पीने का पानी लाने के लिए उन्हें काफी दूर जाना पड़ता है।
उन्होंने गांववालों की समस्या को सुलझाने की सोची। उन्होंने एक दिन गांव के मुखिया को बुलाकर सारी स्थिति के बारे में जानकारी ली, तो पता चला कि गांव में ही एक कुआं है, लेकिन वह भी सूखा हुआ है। कई बार खुदाई करने के बावजूद पानी नहीं निकला है। स्वामी विवेकानंद ने गांववालों से कहा कि चलो, एक बार फिर प्रयास करते हैं। वह खुद कुदाल उठाकर कुएं में उतर गए और खुदाई करने लगे। इससे गांववालों में उत्साह का संचार हुआ और कुएं की खुदाई में जुट गए। काफी प्रयास करने के बाद भी पानी नहीं निकला।
लोग निराश हो गए। तब स्वामी विवेकानंद ने कहा कि एक बार और प्रयास करते हैं। इस तरह तीन बार के प्रयास के बाद विवेकानंद ने जैसे ही कुदाल चलाई, पानी का फौव्वारा फूट निकला। गांववाले खुश हो गए। तब स्वामी विवेकानंद ने कहा कि कभी हार नहीं मानना चाहिए। जब हम हार मानकर बैठ जाते हैं, तो हो सकता है कि इसके बाद ही सफलता हो। ऐसी स्थिति में तब तक हार नहीं माननी चाहिए, जब तक सफलता नहीं मिल जाए। यह सुनकर गांववालों ने एक सबक सीख लिया।
-अशोक मिश्र