स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। बारह साल की आयु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया था। उनका मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता था तो उनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय उन्हें अपने साथ कलकत्ता ले गए। राम कुमार एक स्कूल में अध्यापक थे। रामकुमार को बाद में रानी रासमणि द्वारा बनवाए गए दक्षिणेश्वर काली मंदिर में मुख्य पुजारी नियुक्त किया गया। मंदिर की पूजा में रामकृष्ण परमहंस भी मदद करने लगे। काफी समय बाद जब उनके भाई राम कुमार की मृत्यु हो गई तो रामकृष्ण को ही मंदिर का मुख्य पुजारी बना दिया गया। वह बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ काली की पूजा किया करते थे।
एक दिन की बात है। वह मां काली की पूजा करके बाहर निकले तो उनका एक शिष्य मणि वहां आया। परमहंस ने उसके हाथ पर प्रसाद रखते हुए कहा कि तुम कुछ उदास लग रहे हो। लो प्रसाद खाओ। मणि की हथेली पर प्रसाद रखते हुए परमहंस ने पूछा कि क्या बात है, परेशान क्यों हो? तब मणि ने कहा कि गुरुदेव! मैं हर समय भगवान की पूजा-अर्चना करना चाहता हूं, लेकिन पारिवारिक झंझटों के चलते समय ही नहीं मिल पाता है। मेरा मन बहुत विचलित हो जाता है। समझ में नहीं आता क्या करूं?
अगर कोई मेरे परिवार की जिम्मेदारी उठा ले तो मैं इससे मुक्त हो जाऊंगा। तब परमहंस ने समझाते हुए कहा कि परिवार का अच्छी तरह पालन-पोषण करते हुए ईश्वर की आराधना करना सच्ची भक्ति है। जैसे-जैसे तुम अपने कर्तव्यों को पूरा करते जाओगे, तुम्हारा मन ईश्वर की आराधना में लगता जाएगा। परिवार को छोड़कर आराधना करना अच्छी बात नहीं है। यह सुनकर मणि का मन संतुष्ट हो गया।
-अशोक मिश्र