संत कबीरदास बहुत बड़े समाज सुधारक और प्रगतिशीलता के आधार स्तंभ माने जाते हैं। कई सौ साल पहले जिस तरह उन्होंने धर्म और सामाजिक व्यवस्था में फैली कुरीतियों और बुराइयों का खंडन किया, वह उस समय के अनुसार बहुत बड़े साहस का काम था। उन्होंने कहा कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। अगर कोई आपकी निंदा करता है, इसका मतलब यह है कि वह आपकी कमियों की ओर इशारा कर रहा है। आप अपनी कमियों को दूर कर सकते हैं। कबीरदास के इस मंतव्य को एक संत ने समझा और उस पर अमल भी किया।
कहा जाता है कि किसी गांव में एक संत रहते थे। वह लोगों की हर संभव सहायता करते थे। जहां भी उनकी जरूरत होती, वह जरूर जाते और लोगों का भला करते। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जो उनकी बुराई करते रहते थे। एक दिन की बात है। संत गांव के बाहर बने मंदिर से पूजा करके आ रहे थे, तो एक व्यक्ति पीछे-पीछे उनका भला-बुरा कहता हुआ चला आ रहा था। वह संत को गालियां तक दे रहा था।
उसकी बातों का संत पर कोई प्रभाव भी नहीं पड़ रहा था। जब संत की कुटिया नजदीक आ गई, तो संत ने उस आदमी से कहा कि भाई, आप ऐसा करें कि आप कुटिया में चलें और मेरे साथ रहें। आपको आने-जाने की तकलीफ भी नहीं उठानी पड़ेगी। वह आदमी इसके लिए भी तैयार हो गया। कुछ दिन रहने के बाद उस आदमी को महसूस हुआ कि यह संत तो कितना भला है। मैं बेकार में इसे बुरा कहता हूं। जब उसने संत की निंदा करनी छोड़ दी, तो संत ने कहा कि अब आप वापस जाएं। उस आदमी ने कहा कि मैं यहीं आपके पास ही रहूंगा। तब संत ने कहा कि जब मैं कोई गलत करूं तो तुम्हें निंदा करनी होगी।
-अशोक मिश्र