भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता है। भीड़ हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई नहीं होती है। भीड़ बस भीड़ होती है जिसमें शामिल प्रत्येक व्यक्ति एक उन्मादित पशु की तरह होता है। भीड़ का कोई धर्म भी नहीं होता। अगर भीड़ का कोई धर्म होता, तो वह हत्या नहीं करती, सामूहिक बलात्कार नहीं करती, किसी का घर नहीं फूंक देती। कोई भी धर्म हत्या, बलात्कार, हिंसा और तोड़फोड़ की इजाजत नहीं देता है। 23-24 अगस्त की दरमियानी रात फरीदाबाद में जो कुछ भी हुआ, वह उन्मादित भीड़ का एक छोटा प्रारूप था। चार-पांच लोगों के उन्मादित समूह ने सिर्फ शक के आधार पर एक नौजवान की जान ले ली। कथित रूप से गौ-तस्कर को मारने के चक्कर में आर्यन मिश्रा मारा गया। इस घटना का मुख्य आरोपी जब पकड़ा गया तो आर्यन मिश्रा के पिता सियानंद फरीदाबाद क्राइम ब्रांच के आफिस में उससे मिले।
आरोपी ने सियानंद के पैर छूने के बाद माफी मांगते हुए सिर्फ इतना कहा कि मैं गो-तस्कर समझकर गोली चला रहा था, छिटककर गोली आपके बेटे को लग गई। मैं मुसलमान समझकर गोली मार रहा था। मुसलमान मारा जाता तो कोई गम नहीं होता। मुझसे ब्राह्मण मारा गया। अगर अब फांसी भी हो जाए तो कोई गम नहीं है। जिस समाज में भीड़ न्याय करने पर उतारू हो जाती है, तब ऐसा ही होता है। भीड़ अपने को ही न्यायपालिका समझ लेती है। उसे लगता है कि वह जो कुछ कर रही है, वही अंतिम सत्य है, वही न्याय है और उसे न्याय करने का हक है। आर्यन मिश्रा को गोली मारने के आरोपी भी मानसिकता यही थी। गो-तस्करी करने वालों को गोली मारने का हक उसे किसने दिया? पुलिस ने, संविधान ने, राजनीतिक व्यवस्था ने या फिर समाज ने? यह सवाल सभ्य समाज में तो पूछा ही जाना चाहिए।
गो तस्करों से गायों को बचाने का काम किसका है? पुलिस का। अगर किसी को लगता है कि गो-तस्करी हो रही है, तो वह उसे रोकता, पुलिस को सूचना देता, पुलिस आकर कानून सम्मत कार्रवाई करती, लेकिन अगर कोई मुसलमान है, तो उसे गोली मार दो। यह कहां का न्याय है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और अभी हाल में बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे हमले इसी मानसिकता के उदाहरण हैं। इन देशों में भी बहुसंख्यक वही कर रहे हैं, जो हमारे देश में हो रहा है। उन्मादी भीड़ वहां भी है और यहां भी। भीड़ का न्याय लोकतंत्र या व्यवस्थागत न्याय नहीं होता है।
भीड़ का फैसला संवैधानिक फैसला नहीं होता। यदि आप किसी को अपराधी तय करने का अधिकार न्याय व्यवस्था को देने की जगह खुद लेना चाहते हैं, तो दूसरे देश में होने वाली ऐसी ही घटनाओं पर हायतौबा क्यों मचाते हैं? भीड़ का शासन अराजकता का शासन होता है। ऐसे शासन का कोई न नियम होता है और न कानून। भीड़ जो फैसला कर दे, वही कानून बन जाता है। यह सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। इससे पूरे देश में अराजकता फैलती है। अब हमें तय करना है कि हमें कैसा समाज चाहिए।
-संजय मग्गू