देश रोज़ाना: नवाज शरीफ वापस लौटकर भारत के लिए शराफत दिखा रहे हैं। कराची की रैली में बोलते हुए उन्हें अच्छे रिश्ते गढ़ने की वकालत भी की है। ये उनका हृदय परिवर्तन है या इसमें भी कोई खुराफात छिपी है। सवाल ये भी है कि आखिर नवाज भारत के लिए शरीफ क्यों बन रहे हैं। हालांकि, उनकी टिप्पणी पर अभी हमारी हुकूमत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। देने की जरूरत भी नहीं, जल्दबाजी करने की अभी आवश्यकता नहीं? पाकिस्तान राजनीतिक रूप से अपाहिज हुआ पड़ा है। दलदल की ऐसी गहरी खाई में समाया है जहां से निकालकर दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने की कूब्बत फिलहाल मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ में कतई नहीं है? तभी उन्होंने फौज और निर्वासित जीवन जीने वाले अपने बड़े भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के मध्य एक गुप्त समझौता करवाया। गुप्त समझौते पर जैसे ही मुहर लगी, नवाज की वतन वापसी का रास्ता साफ हुआ। परसों वह करीब सवा चार वर्ष का राजनीतिक वनवास काटकर वतन लौटे हैं। ये पहली मर्तबा हुआ है, जब पाकिस्तान अपने किसी नेता का निर्वासित जीवन इतनी आसानी से पचाया हो।
बहरहाल ये सौ आने सच है कि पाकिस्तानी सियासत कभी फौज के दबदबे से आजाद नहीं हो पाएगी। पिछले चुनाव में नवाज की पार्टी को हराकर पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ने अपनी सरकार बनाई थी। इमरान जैसे-जैसे फौज के खिलाफ मुखर हुए, उनकी सत्ता से विदाई की जमीन भी तैयार होती गई। इस कड़वी सच्चाई से नवाज विदेश में बैठे-बैठे वाकिफ हो गए। तभी, उन्होंने बिना शर्त फौज के आगे घुटने टेक दिए। परवेज मुशर्रफ भी जीते जी निर्वासित जीवन में ही मर गए। अंतिम सांस भी उनको अपने वतन में नसीब नहीं हुई। कमोबेश, कुछ ऐसा ही नवाज शरीफ के साथ भी होता। लेकिन, वह सियासत के बड़े चतुर और माहिर खिलाड़ी हैं। बदली सियासी हवा की नब्ज को जानते-समझते हैं।
सर्वविदित है कि पाकिस्तान में बगैर फौज के राजनीति कोई भी नेता नहीं कर सकता। सियासत में फौज के बिना वहां पत्ता तक नहीं हिलता। शरीफ अपने सियासी और उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंच चुके हैं। उन्होंने बहुत सोच समझकर फैसला लिया। इसे समझदारी कहें, या घुटने टेकना? फिलहाल राजनीति और राजनेताओं को इससे फर्क नहीं पड़ता, विशेषकर पाकिस्तानियों को, क्योंकि वह छटे हुए ढीठ और बेशर्म किस्म के होते हैं। फौज संग गुप्त समझौते के बाद वतन लौटे नवाज के समक्ष चुनौतियां कम नहीं होंगी। हालांकि उनके लौटने के बाद फौज के इशारों पर पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की सुगबुगाहट शुरू हुई है। हालांकि ये सुगबुगाहट पार्टी विशेष के लिए तो फायदेमंद हो सकती हैं। पर, अस्थिर लोकतंत्र को लेकर ज्यादा उम्मीद लगाना अभी बेमानी होगा। पाकिस्तान इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। भुखमरी, अस्त-व्यस्त कानून व्यवस्था, चरम पर बेरोजगारी आदि फैली हुई है।
इस बीच भारत के लिए पूर्व पीएम नवाज की पाकिस्तान वापसी कितनी महत्त्वपूर्ण है, ये बड़ा सवाल सभी के मन में उठ रहे हैं। वो तीन मर्तबा अपने मुल्क के प्रधानमंत्री रहे तब दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्तों की वकालत करते रहे। शनिवार को ‘मीनार-ए-पाकिस्तान’ की रैली में भी उन्होंने कह भी दिया कि नासूर बना कश्मीर का मसला शालीनता से सुलझाकर भारत के साथ अच्छे रिश्ते दोबारा से शुरू करेंगे। हालांकि भारत तो हमेशा से इसका पक्षधर रहा है। भारत ने बातचीत के रास्ते कभी बंद नहीं किए, 2014 में जब केंद्र की सत्ता में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का आगमन हुआ तो उन्होंने बड़ी मानवीय तरीके से बातचीत को आगे बढ़ाने की अलहदा तस्वीर पेश की थी। बिना आमंत्रण के वह पाकिस्तान पहुंचे थे। जबकी, उनके इस कदम का भारत में जमकर विरोध भी हुआ था। (यह लेखक के निजी विचार हैं।)
डॉ. रमेश ठाकुर