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युवाओं को आध्यात्मिक तेज से जोड़ने का विवेक

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स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप यों ही नहीं मनाया जाता, बल्कि इसलिए मनाया जाता है कि उनके विचार युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत थे, हैं और सदा रहेंगे। स्वामीजी ने महज 39 वर्ष की उम्र में संसार छोड़ने से पूर्व जिस ज्ञान-विवेक और दूरदर्शिता का परिचय दिया, वह विलक्षण है। स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में कोलकाता में हुआ। उनका बचपन का नाम नरेंद्र दत्त था।

नरेंद्र बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। हर बात को तर्क की कसौटी पर परखने वाले नरेंद्र वर्ष 1884 में अपने पिता के देहांत के उपरांत परिवार की जिम्मेदारी संभालने के लिए विवश हो गए। ऋण की परेशानी, नौकरी की तलाश, मुकदमेबाजी में फंसे नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस के रूप में एक सच्चा गुरु मिला। गुरु के मार्गदर्शन में उन्होंने साधना प्रारंभ की और उनके जीवन काल में ही समाधि प्राप्त कर ली।

अपने गुरुदेव के समक्ष जब नरेंद्र ने दीर्घकाल तक समाधि अवस्था में रहने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने अपने शिष्य को उसका लक्ष्य बताते हुए कहा कि आपको प्रकाश पुंज बनना है। रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य को आदेश देते हुए कहा कि आपको मानवता में आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न करनी है। दीन-दुखियों का सहारा बनकर उन्हें समानता का अधिकार दिलाना है। अगस्त 1886 में परमहंस की महासमाधि उपरांत उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और नरेंद्र दत्त स्वामी विवेकानंद हो गए। घर-बार, गृहस्थी छोड़ स्वयं को मुक्त कर वाराहनगर में रहने लगे। इसके उपरांत स्वामी विवेकानंद उत्तर प्रदेश, बिहार, काशी, अयोध्या, हाथरस, ऋषिकेश आदि तीर्थों की यात्रा के पश्चात पुन: वाराहनगर मठ में आ गए और रामकृष्ण संघ में शामिल हो गए।

लोकमान्य तिलक, स्वामी रामतीर्थ जैसे विद्वान व देशभक्तों से उनकी निकटता रही। 11 सितंबर 1893 का दिन विश्व के धार्मिक इतिहास में चिरस्मरणीय बन गया, जब इस गेरुआ वस्त्रधारी संन्यासी ने शिकागो (अमेरिका) में सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेकर हिंदू धर्म व वेदांत दर्शन की बड़ी योग्यता से सरलतापूर्ण व्याख्या कर अमेरिकावासियों का दिल जीत लिया। पूरा सम्मेलन स्वामी विवेकानंद के रंग में रंग गया। हिंदू धर्म के अनेक पक्षों को जब उन्होंने सम्मुख रखा, तो वहां रहने वाले भारतीयों का सिर गर्व से ऊंचा हो गया।

इसके उपरांत स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के विभिन्न शहरों में व्याख्यान दिए। सच कहें तो स्वामी विवेकानंद का नाम लेते ही या उनका स्मरण करते ही एक ऐसे महान व्यक्तित्व की छवि आंखों के सामने प्रकट होती है, जिनके उपदेश न केवल सार्थक हैं, बल्कि उन पर अमल करने से सफलता अवश्य हासिल की जा सकती है। कहते हैं कि गेरुवे वस्त्र में स्वामीजी जितने दिव्य दिखते थे, उनके विचार उससे भी कहीं ज्यादा दिव्य हैं।

उनके विचार आधुनिक युग में प्रेरणा का एक ऐसा साधन हैं जो निराशा से भरे जीवन में आशा की एक सरिता प्रवाहित करता है। उनके ओजस्वी भाषण, उनके द्वारा दिए गए प्रेरणादाई उपदेश जीवन में आगे बढ़ने के लिए और जीवन में सफलता हासिल करने में निश्चित ही सहायक होते हैं। स्वामीजी वेदों-उपनिषदों के ज्ञाता होने के साथ-साथ एक प्रखर व सफल वक्ता भी थे। उन्होंने छोटी से उम्र में सनातन धर्म व संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

उन्होंने विश्वभर में वेदांत दर्शन का प्रसार किया और पूरे विश्व को सनातन धर्म और संस्कृति से परिचित कराया। इसे स्वामीजी की शिक्षा का ही असर कहा जा सकता है कि भारत की गुलामी के वक्त लोगों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना को बल मिला और इस भावना ने ही लोगों में एकता स्थापित की, जिसने गुलामी की जंजीरों को तोड़कर भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

-शंकर जालान

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