पश्चिम बंगाल में आगामी आठ जुलाई को त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव होने जा रहे हैं। नामांकन पत्र दाखिल करने की तारीख 15 जून बीत चुकी है। इस दौरान भाजपा, कांग्रेस, सीपीआई आदि दलों ने टीएमसी पर आरोप लगाया कि वह विरोधी दलों के उम्मीदवारों को नामांकन पत्र दाखिल करने नहीं दे रही है। इसको लेकर मामला कलकत्ता हाईकोर्ट तक गया। हाईकोर्ट ने नामांकन पत्र दाखिल करने की तारीख बढ़ाने से इनकार कर दिया। हां, केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती का आदेश जरूर राज्य सरकार को दिया। पश्चिम बंगाल में होने जा रहे पंचायती चुनाव की जिस तरह से खबरें आ रही हैं, उसको देखते हुए लोगों को ताज्जुब होगा कि आखिर भाजपा, कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की बंगाल के पंचायत चुनाव में इतनी दिलचस्पी क्यों है? बंगाल की राजनीति को समझने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि आजादी के बाद से ही बंगाल में राजनीतिक दल आपस में खून की होली खेलते रहे हैं।
आजादी के बाद यहां कांग्रेस का शासन लंबे समय तक रहा। उसने एकदम निरंकुश की तरह बंगाल में शासन किया। उसके बाद वामपंथी दल के शासन का तरीका भी कांग्रेसियों जैसा ही रहा। अब वामपंथी कांग्रेसियों से बदला लेने लगे। वामपंथियों से ऊबी जनता ने तृणमूल कांग्रेस को शासन सौंपा, तो टीएमसी कार्यकर्ता भी वही करने लगे, जो उनके पूर्ववर्ती करते थे। भाजपा को भी विपक्ष में रहते हुए ईंट का जवाब पत्थर से देना पड़ रहा है। आए दिन भाजपा कार्यकर्ता मारा जाता है, तो कभी टीएमसी, कांग्रेस या सीपीआई का। यह खून खेल चलता रहता है। इसके लिए चुनावी माहौल होना कोई जरूरी नहीं है। पुलिस और प्रशासन सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं की ज्यादा सुनता है। दरअसल, 1977 में पश्चिम बंगाल में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद लागू हुई, तो राजनीतिक दलों को यह व्यवस्था विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक पहुंचने की आसान सीढ़ी लगी।
नतीजा यह हुआ कि सबने कोशिश करनी शुरू कर दी कि उनका ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधित्व पंचायतों में हो। पश्चिम बंगाल में 3,317 ग्राम पंचायतें हैं। इन ग्राम पंचायतों की 63,229 पंचायत समितियों की 9,730 सीटें और 22 जिला परिषदों की 928 सीटें हैं। आठ जुलाई को कुल 73,887 सीटों के लिए मतदान होगा। पिछली बार वर्ष 2018 में टीएमसी ने पंचायत की 90 फीसदी सीटों के साथ-साथ 22 जिला परिषदों पर कब्जा जमाने में सफलता हासिल कर ली थी। जिला परिषदों को क्षेत्रफल के हिसाब से पांच साल में पांच से अट्ठारह करोड़ रुपये खर्च करने को मिलता है। कई बार पंचायतों का बजट विधायकों को मिलने वाले बजट से ज्यादा हो जाता है।
यही वजह है कि पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दल चाहते हैं कि अधिक से अधिक सीटों पर उनका आदमी हो ताकि केंद्र और राज्य सरकार से मिलने वाले बजट के बारे में सवाल करने वाला कोई दूसरा न रहे। ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि पश्चिम बंगाल में यह खूनी खेल कब तक चलता रहेगा?
संजय मग्गू