मोनालिसा कृति से शायद ही कोई अपरिचित हो, रहस्यमई दुनिया, शबीह के पीछे का प्राकृतिक दृश्य, चेहरे के भाव, बनावट लगभग सभी पहलुओं पर बहुत अधिक जानने को मिला होगा, पर आज मैं बात करूंगा कलाकार कामीय कोरो की जिनकी कृति ‘मोती पहनी हुई स्त्री’ जो मोनालिसा से प्रभावित तो दिखती है, पर है बिल्कुल अपने लय में। ना कोई रहस्य, ना कोई बनावटीपन, चेहरा तथा आंखों की शालीनता, पृष्ठभूमीय परिदृश्य, वस्त्र विन्यास सभी बिल्कुल ही सादगीपूर्ण हैं, बिल्कुल ही कलाकार कोरो की भांति। कलाकार कोरो बेहद ही संजीदा, संवेदन शील, गरीबों के पालनहार, घमंड से कोसों दूर रहने वाले प्राणी थे। वे सहायता भी ऐसे किया करते थे जैसे खुद आपसे सहायता मांग रहे हों ताकि सहायता प्राप्त करने वाले के मन में ये ना आने पाए कि कोरो ने मेरी सहायता की, ग्लानि न कर सके सहायता प्राप्ति के बाद।
कलाकार संवेदनशील होता है पर कोरो उसकी पराकाष्ठा पर थे। स्वभाव भी शर्मीला था, पढ़ने में मन कभी नहीं लगा। पिताजी के कहने पर खुद के दुकान पर बैठ तो जाते थे, पर मन वहां भी नहीं रमा। फलत: अधिकतर प्रकृति के सान्निध्य में रहना होता था और शायद इसी वजह से दृश्यचित्रों में उनकी पहचान बन सकी। हालांकि कृतियां और भी रहीं जिसमें व्यक्ति चित्र, काल्पनिक चित्र भी प्रमुख रहे। पिता की सहमति से कला के क्षेत्र में आने वाले कलाकार कोरो बहुत ही शांत तरीके से अपने कलाकर्म में रमे रहते थे। दिखावे से भी दूर ही रहते। गंभीर तो इतने कि जीवन के 50 वर्षों तक कोई समझ ही नहीं सका कि वे कलाकार भी हैं।
जब वे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे गए, तब जाकर लोगों को उनके भव्यता और चित्रकारी में सिद्धहस्तता के बारे में जानकारी हो सकी। कई-कई दिन बाहर प्रकृति के साथ बिता देने के बाद उन्हीं को कई-कई दिन स्टूडियो में रहकर बनाया करते थे। मिशैलो जो कोरो के हमउम्र रहे, अच्छे प्रकृति चित्रकार रहे, पर बहुत ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह सके। और उन्हें जॉक डेविड से सीखने का मौका मिला, उनके साथ कुछ समय रहकर भी कोरो ने प्रकृति चित्रण किया। कोरो पर उनका बहुत प्रभाव रहा। चित्रकार कांस्टेबल के चित्रों ने भी इनको खूब प्रभावित किया। अध्ययन और यात्रा का असर उनके कृतियों पर साफ दिखता है।
ग्रामीण बस्तियों में घूमना, प्राचीन खंडहरों को निरखना तथा दिन के अलग-अलग पहर के हिसाब से चित्रित करना उनकी आदत में शुमार हो गया था। फांटेनब्लू के जंगल, वहां का रहन-सहन भी उनको प्रभावित करने में सफल रहे और सफल रहे वहां के कलाकार उन्हें अपने साथ रख पाने में। बार्बिजां से भी उनका जुड़ाव रहा। कोरो ने शबीह चित्र भी खूब बनाए हैं।
‘नार्नी का दृश्य’ जहां है तो खंडहर पर उसमें भव्यता का पुट डालने के साथ ही पूरी कृति प्रभावी बन गयी है, दृश्यों एवं रंगों में भी यथार्थता है। बारीक तत्त्वों के अनावश्यक प्रयोग से बचते हुए ठोस कदम के साथ ठोस आकृतियां कोरो की पहचान बन गर्इं। टूटे हुए पुल, जमीन, पेड़-पौधों में गजब की जीवंतता है। एक तरफ जहां रंगों को प्रभावी बनाते हुए कलाकार प्रभाववाद के तरफ बढ़ रहे थे, कोरो अपने सपनों को ही जीना चाह रहे थे और उसी के अनुरूप रंगों को व्यवहार में भी ला रहे थे।
कोरो स्वतंत्र भाव से रचते थे और अपने विचार किसी पर थोपना पसंद नहीं करते थे। मैरिट गैंबे के शबीह चित्र में तो गजब की वास्तविकता है। चेहरे पर गंभीरता, शरीर की बनावट, रंगों की सादगी के साथ ही विरोधाभास, गंभीर पृष्ठभूमि, मौलिकता का स्पष्ट छाप है पूरी कृति में। कृति दर्शकों को आकर्षित करती है। कहीं से भी अतिश्योक्ति जैसी बात नहीं है। कोरो माता-पिता के प्रति एकदम से समर्पित हो गये थे और अंत तक एक आज्ञाकारी पुत्र बने रहे।
कभी-कभी तो बाहर जाने हेतु आज्ञा न मिल पाने की वजह से घंटों गुजारिश करनी पड़ती थी माता पिता से, तब कहीं जाकर अनुमति मिल पाती थी। कोरो दान-पुण्य करने में भी हमेशा आगे रहे। साथ ही कृतियों को बड़ी ही ईमानदारी के साथ चित्रित करना उनकी आदत थी उन्हें बाबा कोरो नाम से भी जाना जाता है। लगातार निर्मिति में रमे होने के बावजूद अंत में उनका कहना कि मैं आकाश को कायदे से नहीं रंग सका शायद कुछ भी नहीं। उनके शालीनता का बड़ा उदाहरण हैं। 16 जुलाई 1796 को जन्मे कलाकार कोरो 78 वर्ष तक जीवित रहे और कला के कई पदों पर कार्यरत रहे।
पंकज तिवारी