महात्मा बुद्ध शायद पहले ऐसे दार्शनिक थे जिन्होंने दुखों के कारण का पता लगाने का प्रयास किया था। एक शक्तिशाली गणराज्य के युवराज होते हुए भी उन्होंने वैभवशाली जीवन त्याग कर एक भिक्षु का जीवन बिताया। वह चाहते तो अन्य युवराजों के समान अपना जीवन सुख में बिता सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अपने जीवन के अनुभव से एक बात वह समझ चुके थे कि निजी संपत्ति ही दुखों का कारण है। यही वजह है कि उन्होंने अपने संघ में निजी संपत्ति को मानता नहीं दी। एक बार की बात है।
जब महात्मा बुद्ध वर्षा काल बिताने के लिए श्रावस्ती आए तो उन्होंने डाकू अंगुलिमाल के बारे में जाना। उन्होंने उसका हृदय परिवर्तन करने के बारे में विचार किया। एक दिन वह उसे ओर चल पड़े जिस ओर डाकू अंगुलिमाल रहता था। डाकू अंगुलिमाल ने महात्मा बुद्ध को देखा तो कहा ठहरो। महात्मा बुद्ध ने तपाक से उत्तर दिया मैं तो ठहर गया तू कब ठहरेगा। इस वाक्य ने उसकी संचेतना को झिझोड़ कर रख दिया। वह महात्मा बुद्ध के पैरों में गिर पड़ा और कहा मुझे अपना भिझु बना लीजिए। महात्मा बुद्ध ने उसे अहिंसा का उपदेश दिया और संघ में शामिल कर लिया।
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श्रावस्ती में जब वह लोगों से भिक्षा मांगने जाता, तू पहले लोग डरे, बाद में उसे पर पत्थर फेंक कर मरने लगे। एक दिन वह लहूलुहान होकर महात्मा बुद्ध के पास पहुंचा, तो महात्मा बुद्ध ने कहा अब तुम सच्चे अहिंसक हो गए हो। दरअसल उसका वास्तविक नाम भी अहिंसक था। बाद में महात्मा बुद्ध के समझाने पर लोगों ने अहिंसक पर पत्थर बरसाना बंद कर दिया।
-अशोक मिश्र
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