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सखी! आज घन द्वारे आए

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नील निलय में पीड़ा सोई
री मैं सपने में थी खोई
जाने कैसे याद आ गए
दुखिया पलक हमारी रोई
नींद खुली सारा जग सूना
तन-मन तपन बढ़ाने आए
सखी! आज घन द्वारे आए।


बैठी हूं अधरों को भींचे
प्रतिपल उर नयनों से सींचे
ऐसे में यह रात निगोड़ी
रह-रह नभ से आग उलीचे
बिखर गए सपने सब मेरे
मुझको आह रुलाने आए
सखी! आज घन द्वारे आए।


पाती उनकी जो मैं पाती
फिर भी उसको बांच न पाती
अधरों से तो बोल न फूटे
अंखिया रस ढुलकाती जाती
बिन अक्षर की पाती लेकर
मुझको आज सताने आए।
सखी! आज घन द्वारे आए।

-अशोक मिश्र

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