सामंती समाज के उन्मूलन के बाद स्थापित हुई नई अर्थव्यवस्था में युद्ध जब भी होते हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं वैश्विक अर्थव्यवस्था में आया उतार-चढ़ाव एक मुख्य कारण होता है। पिछले दो दशकों से अमेरिकी अर्थव्यवस्था बार-बार मंदी के दौर से गुजर रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था का हथियार उत्पादक होना है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था सैन्य हथियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। दो साल पहले तक लगभग दुनिया भर में एक तरह की शांति छाई हुई थी। छिटपुट आतंकी हमले जरूर होते रहते थे।
हथियारों के मामले में अति उत्पादन के दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था जीवन ऊर्जा प्रदान करने के लिए जरूरी था कि कहीं युद्ध हो या दो देशों में इतना तनाव बढ़ जाए कि दोनों या दोनों में से कोई एक देश अपनी सुरक्षा के लिए उससे अस्त्र-शस्त्र खरीदने पर मजबूर हो जाए। अमेरिका और उसके पिट्ठू संगठन नाटो ने यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे मनमुटाव का फायदा उठाया और ऐसे हालात पैदा किए कि रूस और यूक्रेन में युद्ध छिड़ गया।
अमेरिकी हथियार यूक्रेन में खपाए जाने लगे। अभी सात अक्टूबर को हमास-इजरायल युद्ध ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जैसे संजीवनी प्रदान कर दी। इजरायल को सहायता प्रदान करने के नाम पर अमेरिकी कंपनियों को एक नया बाजार मिल गया। उन्होंने इन दोनों मौको का फायदा उठाया और यूक्रेन और इजरायल के हिमायती बनकर हथियारों की सप्लाई शुरू कर दी। अमेरिका इजरायल के साथ खड़ा ही इसलिए हुआ था कि उसके आर्म्स उस क्षेत्र में आसानी से बिक सकें। पूरी दुनिया के आर्म्स बाजार में अमेरिका की 40 फीसदी हिस्सेदारी है। रूस की हिस्सेदारी सिर्फ 16 फीसदी ही है। इसके बाद फ्रांस, चीन, जर्मनी, इटली और ब्रिटेन का नंबर आता है।
रूस-यूक्रेन और हमास-इजरायल के बीच चल रहे युद्ध ने अमेरिका की पांच कंपनियों लॉकहीड मार्टिन, रैथन टेक्नोलाजिस, बोइंग, नॉर्थरॉक ग्रुमैन और जनरल डायनामिक्स जैसी कंपनियों को बहुत फायदा पहुंचाया है। अमेरिका दुनिया भर के 102 देशों को अपने हथियार बेचता है। पिछले दो सालों में अमेरिका ने अपनी सैन्य हथियारों की बिक्री में 49 फीसदी की बढ़ोतरी की है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2022 में दुनिया की सबसे बड़ी सौ कंपनियों के सैन्य हथियारों का कारोबार 592 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। पूरी दुनिया इन दिनों अपनी रक्षा मद में 2200 अरब डालर खर्च कर रही है। यह रकम दुनिया के सबसे गरीब सौ देशों की जीडीपी का दो गुना है।
आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर देश अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी मूलभूल सुविधाओं पर जितना खर्च करते हैं, उससे कहीं ज्यादा उनका रक्षा बजट होता है। कहने का मतलब यह है कि मनुष्य को जिंदा रखने से कहीं ज्यादा मनुष्य को मारने पर खर्च किया जा रहा है। दुनिया में जितने सैन्य हथियारों का निर्माण हो रहा है, उसका उपयोग इंसान को मारने, धन संपदा का विनाश करने और पर्यावरण को दूषित करने में ही किया जाएगा। यह कैसी विडंबना है कि हमारे भाग्य विधाता हमारे विनाश का साधन जुटाते जा रहे हैं और हम विवश देखने को मजबूर हैं।