संविधान और सुशासन के रिश्ते को जहां साढ़े सात दशक पूरे हो चुके हैं, वहीं सुशासन और प्रभु श्रीराम का साझा सरोकार सदियों पुराना है। संवेगात्मक और कुशल शासकीय शैली से जहां श्रीराम ने राजकाज को न्याय से जोड़ा, वहीं सभी प्राणियों के प्रति अपनी करुणा और सहानुभूति का आदर्श प्रस्तुत किया। शत्रु हो या मित्र, सभी के प्रति दयालु और न्यायप्रिय रहना श्रीराम की एक अनूठी कार्यशैली थी। वनगमन के दौरान जंगल के रास्ते वे कई गरीब और जरूरतमंद लोगो से मिले, उन पर दया दिखाई और जितना हो सका, उतना बेहतर ही किया।
कठिनाइयों में भी संयम न खोना तथा व्यवहार में न्यायपूर्ण बने रहना श्रीराम की अनोखी विधा है। उनमें सुशासन और समय प्रबंधन का गहन संयोग है। नीतियों का नियोजन करना, उनका उचित कार्यान्वयन तथा जरूरतमंद तक कल्याणकारी हित के साथ पहुंचना शासक का दायित्व है। श्रीराम की यह सीख बड़ी है। समय प्रबंधन के मामले में हनुमान को भी कमतर नहीं आंका जा सकता। सीता की खोज हो, समुद्र पार करना हो या फिर हिमालय से संजीवनी सूर्योदय से पहले लाना हो, समय की कसौटी पर पवनपुत्र हमेशा खरे उतरते हैं। दरअसल, देखा जाए तो प्रभु श्रीराम का कालखंड मानो इस बात का द्योतक है कि नीति, नीयत और नियोजन में तनिक मात्र भी लापरवाही न हो और कार्यान्वयन समय के साथ सुनिश्चित हो।
इसके अलावा श्रीराम के कई और पक्ष हैं जो मर्यादित आचरण और आदर्श के प्रतिबिंब है। मां कैकई के दिए वनवास ने भी उनके मन में मातृत्व के प्रति प्रेम और सम्मान को कम नहीं होने दिया। रावण द्वारा सीता का हरण उन्हें पीड़ा और दुख से भरता है, लेकिन हिम्मत और संयम तब भी जस का-तस बना रहता है। रावण तक पहुंचने, राक्षसों का वध करने और वानर-भालू के साथ विजय हासिल करने की कुशल रणनीति के नायक केवल श्रीराम ही हो सकते हैं। प्रभु श्रीराम समेत सभी भाइयों व सीता में भी आचरण और नैतिकता का सर्वथा निर्वाह, सुशासन की अवधारणा को पुष्ट करता है।
सुशासन के लिए व्यवस्था जब अनुकुल करनी होती है, तब किसी भी शासक को संयमित, संतुलित, व्यवहार कुशल, पारदर्शी और लोक कल्याणकारी समेत कई खुले दृष्टिकोणों को एकाग्र करना होता है।
श्रीराम ऐसी एकाग्रता के धनी थे, जो कुशल शासक की अवधारणा और मर्यादा को दर्शाता है। समकालीन संदर्भ में चर्चा करें तो संविधान जहां राजनीतिक अधिकारों एवं लोक कल्याण का वृहत्तम संयोजन है, तो वहीं सुशासन एक जन केंद्रित कल्याणकारी तथा संवेदनशील शासन व्यवस्था है। विधि के शासन की स्थापना के साथ-साथ संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राप्त करने का प्रयास सुशासन है जिसके केंद्र में नागरिक और उसका सशक्तिकरण है। अयोध्या के राजा श्रीराम की शासकीय पद्धति की बारीकी से पड़ताल की जाए तो काफी हद तक भारतीय संविधान उनके समीप खड़ा दिखाई देता है।
व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की अपनी-अपनी व्याख्याएं और अपनी-अपनी शक्तियां हैं, जो देश को आगे बढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यही ताकतें जब आपसी हस्तक्षेप से उलझती हैं तो सुशासन की राह को भी खतरा पहुंचता है और जब यही सीमाओं में रह कर कार्य करती हैं तो न केवल नागरिकों के अधिकार सबल होते हैं, बल्कि देश में विकास की नई धारा भी विकसित होती है। गौरतलब है संविधान एक गतिशील अवधारणा ।है जाहिर है साढ़े सात दशक से नागरिकों के अधिकारों को बनाए रखने में इसकी विधिवत भूमिका रही है। वहीं दूसरी तरफ श्रीराम के आदर्श और उनके निहित आचरण से एक ऐसी ऊर्जा देश के नागरिकों को मिलती रही, जो भटकाव को रोकने और सार्थक दिशा में कदमताल करने की ताकत से युक्त रखा। देश की सरकार हो या जनमानस सभी ने श्रीराम को मन में बसाया और उनके शासकीय पद्धति और अनुशासन व्यवस्था को संजोने का प्रयास किया।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-डॉ. सुशील कुमार सिंह