बात जब बिहार में चित्रकला की आती है, तो मिथिला चित्र कला शैली के भित्ति चित्र व अरिपन का नाम जरूर आता है। मिथिला या मधुबनी चित्रकला एशिया के विभिन्न देशों में अपनी कलात्मकता और विशिष्ट शैली के लिए विख्यात है। यह चित्रकला बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी एवं नेपाल क्षेत्रों में खूब देखने को मिलती है। इस चित्रकला में मिथिलांचल की संस्कृति को पूरी जीवटता से बनाई जाती है। यह चित्रकला प्राचीन महाकाव्यों, प्राकृतिक दृश्यों व सामाजिक-सांस्कृतिक दृश्यों को प्रदर्शित करती है। दरअसल भारत में, चित्रकला का पुराना इतिहास है। गुफाओं से मिले अवशेष व साहित्यिक स्रोतों के आधार पर स्पष्ट है कि भारत में चित्रकला प्राचीन समय से है।
वर्तमान में, विद्यालयी पाठ्यक्रम में चित्रकला शामिल होने से बच्चों के अंदर कलात्मक, सृजनात्मक, तार्किकता, कल्पनाशीलता आदि कौशलों का विकास हुआ है। निजी विद्यालयों में इसे प्रोत्साहित भी किया जाता है। वहीं सरकारी स्कूलों में चित्रकला के प्रति उतनी सजगता नहीं देखी जाती है। जिसके कारण ग्रामीण किशोर-किशोरियों को आर्ट एडं क्राफ्ट की पढ़ाई और कैरियर के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं है।
हालांकि बिहार सरकार ने प्रत्येक शनिवार को ‘बैगलेस डे’ (बिना स्कूली बस्ता) घोषित किया है। इस दिन बच्चों को किताबी ज्ञान की जगह कला, संस्कृति और खेलकूद से जोड़ा जाता है। इससे बच्चों के अंदर कला और शिल्प के प्रति थोड़ी जागृति आती दिख रही है। परंतु, महंगी शिक्षा व्यवस्था के इस काल में दो जून की रोटी जुटाने वाले परिवार के बच्चे भला लोककला, लोक संस्कृति, चित्र कला, नृत्य कला, संगीत कला आदि कौशलों को कैसे सीख पाएंगे? यह शासन और समाज के लिए यक्ष प्रश्न है। देश में नामचीन चित्रकार की पहुंच हाशिये पर खड़े लोगों से कोसों दूर है। इनके लिए चाहकर भी समय निकालना मुश्किल काम है।
ऐसे में देश के ग्रामीण इलाकों से ही सही, कला-चित्रकला की धीमी लौ कुछ युवाओं के प्रयास से जल रही है। इन्हीं में एक युवा चित्रकार सुजीत कुमार हैं। जिनके प्रयासों से दलित-महादलित बस्ती की सुरुचि, चांदनी, अमनदीप, मेघा, अनूप प्रिया, राखी, वैष्णवी, नेहा आदि किशोर-किशोरियां सरकारी स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ आर्ट एंड क्राफ्ट के जरिए करियर को मुकाम देने में मशगूल हैं। अपने जीवन के उदासीपन, बचपन, गरीबी, मुफलिसी, भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह को कैनवास पर तूलिका से विभिन्न रंगों में भर रहे हैं।
बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 10 किमी की दूरी पर स्थित अहियापुर-मुरादपुर दलित-महादलित बस्ती के इन बच्चों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बिल्कुल निम्न है। इसके बावजूद वह अपने मनोभाव, मनोदशा, अकुलाहट एवं बेबसी को कैनवास पर जीवंत करने में जुटे हुए हैं। गांव की गरीबी, बेबसी, बदइंतजामी आदि के बीच रहते हुए इन बच्चों के माता पिता मजदूरी करके किसी प्रकार दैनिक खर्चों को पूरा कर पाते हैं। इसके बावजूद वह अपने बच्चों को सृजनात्मक और कलात्मक कार्यों के लिए सुजीत कुमार के कलाकृति आर्ट स्टूडियो भेजते हैं। जहां सुजीत नि:शुल्क इन्हें पेंटिंग सिखाते हैं। उनके मार्गदर्शन में अब इन बच्चों का पढ़ाई के साथ पेंटिंग भी लक्ष्य बन गया है।
दलित परिवार में जन्मे सुजीत ने बचपन से अपने मजदूर पिता की मजबूरी और मां की बेबसी, लाचारी, गरीबी आदि को बहुत गहराई से देखा और समझा है। जीवन के झंझावातों, मुफलिसी के बीच अपने दुखों को व्यक्त करने के लिए उन्होंने चित्रकला को करियर के रूप में चुना। सरकारी स्कूल से पढ़ाई करने के बाद आर्ट एडं क्राफ्ट कॉलेज, पटना से बैचलर डिग्री प्राप्त की। त्रिपुरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री प्राप्त करने के बाद दलित-महादलित बस्तियों की पीड़ा ने उन्हें बस्ती की बच्चियों को पढ़ाने और लोककला, चित्रकला व नाट्कला के जरिए जीवन में बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया।
अपने कलाकृति आर्ट स्टूडियो के माध्यम से इन गरीब बस्ती की किशोरियों के मन में बचपन से कला के रंग भरने के लिए उनके परिजनों को तैयार किया। वह वर्ष 2018 से करीब 50 बच्चों को चित्रकला का कौशल सीखा रहे हैं। सुजीत कहते हैं कि उपेक्षित समाज में नशा, बाल विवाह, अशिक्षा, ढोंग-ढकोसला, अंधविश्वास आदि का बोलबाला रहा है।
अमृतांज इंदीवर