पत्रकारिता यानि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। पहले तीन हैं न्याय पालिका, कार्य पालिका और विधायिका। पहले तीनों स्तंभों के कार्य क्रमश: विधायिका कानून बनाती है, कार्य पालिका यानि सरकार नौकरशाही के माध्यम से उनका अनुपालन कराती है, और देश के विकास कार्य के साथ जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना, आंतरिक और सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था, विदेश नीति आदि प्रमुख कार्य होते हैं। न्यायपालिका का काम है हर व्यक्ति समूह संगठन संस्थाओं आदि को संविधान के अनुसार न्याय दिलाना तथा कानून का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करना। अब हम आते हैं चौथे स्तंभ पर। पत्रकारिता जो आजकल मीडिया के नाम से ज्यादा प्रचलित है।
पहले तीन स्तंभों से जुड़े व्यक्तियों को मिलती है संस्थानों से वेतन और हर सुविधा सरकारी खजाने से मिलती है। लेकिन मीडिया से जुड़े पत्रकारों, संस्थानों को ऐसी कोई सुविधा सरकारों से नहीं मिलती है। इसलिए इस बात पर भी बहस की जा सकती है कि क्या वास्तव में ये लोकतंत्र का चौथा स्तंभ या पाया है भी या नहीं। ये तय है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ प्रेस, मीडिया या पत्रकारिता आप जो भी कहें, उसके बिना लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पत्रकारिता के माध्यम से देश विदेश आदि में जनता को हर प्रकार की सूचना देने, देश दुनिया के अंदर बाहर की जानकारी देने का कार्य मीडिया ही करता है।
यही ही नहीं, जनता के हर सुख दु:ख जरूरत की सूचना भी मीडिया ही सरकार या संस्थानों तक पहुंचाने का काम करता है। मीडिया सरकार और अन्य सभी संस्थाओं के कार्यों पर पैनी नजर रखता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जो सरकार देश और देश की जनता से छिपाना चाहती है यानि जनता को गलत सूचनाएं देती है, अपनी नाकामियों को छुपाती है। मीडिया उनको देश के सामने उजागर कर असलियत से रूबरू कराता है जिससे कोई सरकार, संस्थान, नौकरशाह या व्यक्ति देश को नुकसान न पहुंचा सके। भ्रष्टाचार कर के देश को खोखला ना कर सके। संविधान, कानून के विरुद्ध होने वाले हर कार्य को देश के सामने निष्पक्षता से उजागर करना ही पत्रकारिता धर्म है।
देश की आजादी में पत्रकारों का बड़ा योगदान रहा है। देश की आजादी के लिए अनेक नेताओं ने संघर्ष के साथ कलम भी उठाई। गांधी जी जैसे अनेक नेता अपने पत्र भी निकालते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए मजबूत ताकतवर प्रेस का होना पहली शर्त है। जहां प्रेस निष्पक्ष और आजाद नहीं है। जब-जब प्रेस को दबाया गया है या तो लोकतंत्र खतरे में पड़ा है, लोकतंत्र कमजोर हुआ है।
तानाशाही को बढ़ावा मिला है। दूसरा पक्ष यह भी है कि जब-जब मीडिया ने निजी स्वार्थों, दबावों आदि के चलते अपना पत्रकारिता धर्म नहीं निभाया लोकतंत्र और देश की जनता का नुकसान हुआ है, उन्हें कष्ट झेलने पड़े हैं। वैसे जब से पत्रकारिता पर बाजारवाद हावी हुआ है, पत्रकारों, सम्पादकों की जगह मैनेजरों का दबदबा कायम हुआ है। अखबार निकालने में सम्पादकों की जगह मैनेजरों की चलने लगी है। पत्रकारिता धर्म का तेजी से पतन हो रहा है।
मुझे याद है आज से आठ-नौ साल पूर्व कांग्रेस सरकार थी। मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे। उस समय मीडिया ने कथित भ्रष्टाचार, महंगाई, गिरती कानून व्यवस्था और कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाया था। भाजपा के साथ अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए लोकपाल लागू करने का देशव्यापी आंदोलन चलाया। काले धन के खिलाफ, एक हजार तथा 500 रुपये के नोट बंद करने के लिए अभियान चलाया।
लेकिन न तो लोकपाल आया, न कला धन आया। एक हजार की जगह दो हजार का नोट आया और चला भी गया। न महंगाई कम हुई, न वादे पूरे हुए। आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव चुप हैं। इन मुद्दों पर मीडिया की बोलती बंद है। मीडिया मनमोहन सिंह से कितने सवाल करता था? कितनी आलोचना करता था? मीडिया का वो पैनापन ना जाने कहां गायब हो गया? मीडिया वर्तमान प्रधानमंत्री से कोई सवाल नहीं करता।
दो-चार पत्रकारों या न्यूज चैनल को छोड़कर 95 प्रतिशत चैनल, अखबार सत्ता पर काबिज दल के प्रवक्ताओं की भूमिका निभा रहे हैं। अब ये मीडिया हाउस ऐसा क्यों कर रहे हैं, ये तो वो ही बता सकते हैं।
जगन्नाथ गौतम