कार्यालय का समय राष्ट्र का समय
अशोक मिश्र
समय बहुत कीमती है। गुजरा हुआ समय वापस नहीं आ सकता है। जो बीत गया, सो बीत गया। दुनिया में बहुत सारे लोग होंगे जिनको समय की कीमत का एहसास नहीं होता है। लेकिन दुनिया में वही देश, समाज और व्यक्ति तरक्की करता है, जो समय की कीमत जानता है। इस बात को स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जापान जाने के बाद ही समझ पाए थे। वैसे तो स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि का संन्यास लेने से पहले नाम था अंबिका प्रसाद पांडेय। 18 सितंबर 1932 को आगरा में जन्मे अंबिका प्रसाद पांडेय का मन बचपन से ही अध्यात्म की ओर लगने लगा था। बाद में उन्होंने संन्यास ले लिया था। उन्हें जोतिर्मठ के उपपीठ का जगतगुरु शंकाराचार्य भी बनाया गया था। सन 2015 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से नवाजा गया था। स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि एक बार जापान की यात्रा पर गए। वहां के लोगों को उनकी बातें अच्छी लगती थीं। लोग काफी संख्या में उनके प्रवचन सुनने के लिए आते थे। कुछ लोग तो उनके अनुयायी बन गए थे। उनमें एक अधिकारी भी था। वह अक्सर शाम को स्वामी जी के पास आता और काफी देर तक धर्म की चर्चा करता। धीरे-धीरे स्वामी जी में और उस अधिकारी में मित्रता हो गई। एक दिन स्वामी जी कुछ उदास थे, तो उन्होंने सोचा कि उस अधिकारी से मिल लें। पहुंच गए उसके कार्यालय। चपरासी के हाथों चिट भिजवाई तो थोड़ी देर बाद अधिकारी आया और बोला, मैं आपसे शाम को मिलता हूं। स्वामी जी उदास लौट आए। शाम को अधिकारी आया और बोला, बुरा मत मानिए, हम लोग जब काम करते हैं, तो वह समय राष्ट्र का होता है। उस समय में मैं आपसे कैसे बात कर सकता था। यह सुनकर स्वामी जी अत्यंत प्रसन्न हो गए।
अशोक मिश्र