2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में अब एक वर्श से भी कम समय रह गया है। देश में सभी राजनीतिक दल चुनावों की तैयारियों में जुटे हुए हैं। जहां एक ओर सत्तापक्ष लगातार तीसरी बार जीत का दावा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष अपनी सरकार बनाने का स्वप्न देख रहा है। दोनों के अपने-अपने दावे-प्रतिदावे हैं। वास्तविक परिणाम 2024 के चुनावों के बाद ही पता चलेगा। 2024 के चुनावों की एक विशेष बात यह है कि उससे पहले 2023 के अंत में ही पांच प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन 2024 के चुनावों के शोर में इनकी कहीं विशेष चर्चा नहीं है। 2024 में जीत के लिए विपक्षी दल एकजुटता के लिए प्रयासरत हैं, लेकिन देश के सभी विपक्षी दलों की राजनीतिक स्थिति बड़ी विचित्र है।
इस विचित्रता में विपक्षी एकता का परिदृश्य बहुत ही अद्भुत परिलक्षित होता है। सभी विपक्षी नेता टेढ़ी व लंगड़ी चाल चलकर विपक्षी एकता की मंजिल तक पहुंचना चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक स्वार्थ की भूल भुलैया में भटककर वे वहीं पहुंच जाते हैं, जहां से वे चले थे। विपक्षी एकजुटता तो जब होगी तब होगी, जैसी भी होगी वैसी होगी, लेकिन इन प्रयासों में विभिन्न विपक्षी दलों में जो कटुता उत्पन्न हुई है, वह अपने आप में विलक्षण है। विपक्षी एकजुटता के प्रयास बहुत हो रहे हैं, लेकिन एकजुटता हो नहीं पा रही है। विपक्षी एकता के जितने भी समीकरण बनते हैं, स्वयं उनका तो समाधान होता नहीं, बल्कि विभिन्न समीकरण एक दूसरे से उलझते जा रहे हैं। वास्तविकता यह है कि एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा स्वयं विपक्ष है। विपक्षी एकता के अब तक के सभी प्रयासों और उनके परिणामों को देखें, तो उसमें विपक्षी एकता कम, विपक्षी बिखराव अधिक दिखाई देता है।
विपक्षी एकजुटता के प्रयासों में मजेदार बात यह है कि वे क्षेत्रीय दल, जिनका अपने राज्य से बाहर कोई वजूद नहीं है, वे भी अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने में संकोच नहीं कर रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री पद का एक दावेदार, प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार के पास एकजुटता के लिए जा रहा है। विशेष बात यह है कि देश के सभी विपक्षी दल भले ही मोदी सरकार का कितना भी विरोध कर रहे हों, लेकिन एकता में प्रयासरत विपक्षी नेता एक दूसरे के विरोध में अधिक दिखाई देते हैं। कभी-कभी विपक्षी नेताओं के वक्तव्य विवादास्पद ही नहीं, बल्कि हास्यास्पद भी हो जाते हैं। एकता होने पर विपक्ष मोदी को पराजित कर भी पाएगा या नहीं, यह तो एक अलग बात है। बड़ा सवाल यह है कि विपक्षी एकता के प्रयासों को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता हो भी पाएगी या नहीं।
विपक्षी एकता के लिए दो नेता, जो मुख्यमंत्री भी हैं, प्रधानमंत्री पद का सपना संजोए राजनीतिक यात्रा पर निकले थे और विपक्षी एकता के लिए देश के विभिन्न विपक्षी नेताओं से मिले भी थे, लेकिन उन्हें शीघ्र ही इस कठिन डगर का अहसास हो गया और उन्होंने ये यात्राएं बंद कर दीं। ये दो नेता तेलांगना के मुख्यमंत्री केसीआर और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी थीं। केसीआर तो विपक्षी एकता मुहिम से ही अलग हो गए, लेकिन ममता जरूर विपक्षी एकता में अभी प्रयासरत हैं।
अंतत: एकता का यह प्रयास न केवल विफल रहा, बल्कि राजनीतिक परिदृश्य से ही गायब हो गया। एकता के प्रयासों और वक्तव्यों के बीच 12 जून को बिहार के पटना शहर में विपक्षी नेताओं की बैठक होनी तय हुई थी, लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी मजबूरियों के कारण यह बैठक नहीं हो सकी थी। इस बैठक के साथ प्रथम ग्रासे मक्षिका पाते वाली कहावत चरितार्थ हो गई।
हां, बैठक की नई तारीख 23 जून को पटना में हुई। इस बैठक से पहले ही विभिन्न विपक्षी दलों और उनके नेताओं के अन्य विपक्षी दलों और उनके नेताओं के प्रति दिए हुए वक्तव्य और व्यवहार, इतने अव्यावहारिक तथा विवादास्पद थे, जो इस बैठक के होने के औचित्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा रहे थे, लेकिन विपक्षी एकता की सनक में बैठक अवश्य हुई और स्वाभाविक ही कोई प्रभावशाली परिणाम नहीं निकला। यह एक औपचारिक बैठक ही अधिक सिद्ध हुई। यह बैठक कितनी गंभीर थी, यह इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि इसमें राहुल गांधी की शादी की भी चर्चा हुई। बैठक में विपक्षी एकजुटता के स्थान पर विपक्षी बिखराव ही अधिक दिखाई दिया।
एकता के लिए टीएमसी की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कांग्रेस को चुनावों में बंगाल से दूर रहने के लिए कहा है। वह नहीं चाहती हैं कि कांग्रेस बंगाल में चुनाव लड़े। बंगाल में ममता को कांग्रेस बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है। वहां उसे कांग्रेस का एक भी विधायक बर्दाश्त नहीं हुआ। ममता ने बंगाल को कांग्रेस मुक्त कर दिया है। बंगाल से 42 सांसद आते हैं। कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है जिसने दशकों तक देश में शासन किया है। अभी वह विपक्ष में सबसे बड़ा दल है और 2024 में देश की सत्ता में आने का प्रबल दावेदार है। पूरे देश में उसका बड़ा संगठन व करोड़ों मतदाता हैं। फिर वह बंगाल से कैसे विलग हो सकती है?
बंगाल से बाहर ममता का वजूद ही क्या है? क्या ममता की यह चाहत अव्यावहारिक व हास्यास्पद नहीं है? क्या विपक्षी एकता के लिए ऐसी स्थिति कांग्रेस को स्वीकार्य हो सकती है? कांग्रेस से ऐसी ही मांग उत्तर प्रदेश के लिए अखिलेश ने भी की है। विपक्ष की यह मानसिकता एकता में बड़ी बाधा है। आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस को दिल्ली तथा पंजाब में चुनावी परिदृश्य से दूर रहने के लिए कहा है और यदि कांग्रेस ऐसा करती है तो आप मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव नहीं लड़ेगी।
महेंद्र प्रसाद सिंगला