राजगृह में एक धनी सेठ रहता था। उसने अपने जीवन में काफी धन कमाया था। उसने उस धन का उपयोग लोगों की भलाई में भी किया था। पथिकों आते-जाते समय किसी प्रकार की परेशानी न हो, इसलिए कई पौशालाएं खुलवाई थीं। उसने सराय बनवाई, कई जगहों पर चिकित्सालय भी खुलवाए। इन चिकित्सालयों में रोगियों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। एक दिन सेठ पर व्रजपात हुआ। उसकी पत्नी असमय चल बसी। उसके चार बेटे थे। उसने समय पर सबका विवाह कर दिया था। उसकी चारों बहुएं रूपवती और शालीन थीं। पत्नी की मौत के बाद वह घर की जिम्मेदारी अपनी किसी एक बहू को सौंपकर निश्चिंत हो जाना चाहता था।
एक दिन उसने अपनी चारों बहुओं को बुलाकर उन्हें पांच-पांच देने धान के दिए और कहा कि वह समय आने पर इन दानों को मांग लेगा। आप लोग इसे सुरक्षित रखें। पहली दो बहुओं ने सोचा कि जब घर में धान का भंडार भरा है, तो फिर इन पांच दानों को सहेजने की क्या जरूरत है। उन दोनों ने सोचा कि जब ससुर जी दानों को मांगेंगे, तो वह भंडार से पांच दाने निकाल कर दे देंगी। यही सोचकर उन्होंने दाने फेंक दिए। तीसरी ने सोचा कि इसका क्या किया जाए। फिर उसने उन्हें बो दिए। बाद में जो दाने मिले,उन्हें भी बो दिए।
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इस तरह हर साल धान के बीज बढ़ते रहे। पांच साल बाद एक दिन सेठ ने अपनी बहुओं को बुलाकर दाने वापस मांगे, तो तीन बहुओं ने पांच-पांच दाने उसके हाथ पर रख दिए। चौथी बहू ने कहा कि पिताजी, आपके पांच दाने कोठार में भरे हैं। उस कोठार को ला पाने का सामर्थ्य मेरे पास नहीं है। यह सुनकर सेठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपनी उस बहू को घर की जिम्मेदारी सौंपकर निश्चिंत हो गया।
-अशोक मिश्र
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